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श्रीप्रेम सुधा सागर
दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
छठा अध्याय
वे कहने लगीं- ‘अजन्मा भगवान तेरे पैरों की रक्षा करें, मणिमान घुटनों की, यज्ञपुरुष जाँघों की, अच्युत कमर की, हयग्रीव पेट की, केशव हृदय की, ईश वक्षःस्थल की, सूर्य कन्ठ की, विष्णु बाँहों की, उरुक्रम मुख की और ईश्वर सिर की रक्षा करें। चक्रधर भगवान रक्षा के लिए तेरे आगे रहें, गदाधारी श्रीहरि पीछे, क्रमशः धनुष और खड्ग धारण करने वाले भगवान मधुसूदन और अजन दोनों बगल में, शंखधारी उरुगाय चारों कोनों में, उपेन्द्र ऊपर, हलधर पृथ्वी पर और भगवान परमपुरुष तेरे सब ओर रक्षा के लिये रहें। हृषिकेश भगवान इन्द्रियों की और नारायण प्राणों की रक्षा करें। श्वेतद्वीप के अधिपति चित्त की और योगेश्वर मन की रक्षा करें। पृश्निगर्भ तेरी बुद्धि की और परमात्मा भगवान तेरे अहंकार की रक्षा करें। खेलते समय गोविन्द रक्षा करें, सोते समय माधव रक्षा करें। चलते समय श्रीपति तेरी रक्षा करें। भोजन के समय समस्त ग्रहों को भयभीत करने वाले यज्ञभोक्ता भगवान तेरी रक्षा करें। डाकिनी, राक्षसी और कूष्माण्डा आदि बालग्रह; भूत, प्रेत, पिशाच, यक्ष, राक्षस और विनायक, कोटरा, रेवती, ज्येष्ठा, पूतना, मातृका आदि; शरीर, प्राण तथा इन्द्रियों का नाश करने वाले उन्माद [1]एवं अपस्मार [2] आदि रोग; स्वप्न में देखे हुए महान उत्पात, वृद्धग्रह और बालग्रह आदि - ये सभी अनिष्ट विष्णु का नामोच्चारण करने से भयभीत होकर नष्ट हो जायँ[3]। श्री शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! इस प्रकार गोपियों ने प्रेमपाश में बँधकर भगवान श्रीकृष्ण की रक्षा की। माता यशोदा ने अपने पुत्र को स्तन पिलाया और फिर पालने पर सुला दिया। इसी समय नन्दबाबा और उनके साथी गोप मथुरा से गोकुल में पहुँचे। जब उन्होंने पूतना का भयंकर शरीर देखा, तब वे आश्चर्यचकित हो गये। वे कहने लगे- ‘यह तो बड़े आश्चर्य की बात है, अवश्य ही वसुदेव के रूप में किसी ऋषि ने जन्म ग्रहण किया है। अथवा सम्भव है वसुदेव जी पूर्वजन्म में कोई योगेश्वर रहे हों; क्योंकि उन्होंने जैसा कहा था, वैसा ही उत्पात यहाँ देखने में आ रहा है। तब तक ब्रजवासियों ने कुल्हाड़ी से पूतना के शरीर को टुकड़े-टुकड़े कर डाला और गोकुल से दूर ले जाकर लकड़ियों पर रखकर जला दिया। जब उसका शरीर जलने लगा, तब उसमें से ऐसा धुँआ निकला, जिसमें से अगर की-सी सुगन्ध आ रही थी। क्यों न हो, भगवान ने जो उसका दूध पी लिया था, जिससे उसके सारे पाप तत्काल ही नष्ट हो गये थे। पूतना एक राक्षसी थी। लोगों के बच्चों को मार डालना और उनका खून पी जाना, यही उसका काम था। भगवान को भी उसने मार डालने की इच्छा से ही स्तन पिलाया था। फिर भी उसे वह परम गति मिली, जो सत्पुरुषों को मिलती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ पागलपन
- ↑ मृगी
- ↑ इस प्रसंग को पढ़कर भावुक भक्त भगवान से कहता है - ‘भगवन! जान पड़ता है, आपकी अपेक्षा भी आपके नाम में शक्ति अधिक है; क्योंकि आप त्रिलोकी की रक्षा करते हैं और नाम आपकी रक्षा कर रहा है।’
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