गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 19उत्तरमीमांसान्तर्गत बिम्ब-प्रतिबिम्बवाद-विचार में भी यही कहा गया है; उपाधि-संयुक्त बिम्ब ही प्रतिबिम्ब है। जैसे घटोपाधि भंग हो जाने पर घटाकाश एवं घटाकाशगत जल का भी अन्त हो जाता है; घट-जल का अन्त हो जाने पर बिम्ब सूर्य का प्रतिबिम्ब भी समाप्ज हो जाता है। अर्थात् प्रतिबिम्ब बिम्ब में ही पुनर्विलीन हो जाता है। बिम्बत्व ही ईश्वरत्व है; सम्पूर्ण प्रतिबिम्ब के समाप्त हो जाने पर ही बिम्ब की समाप्ति सम्भव है। एक प्रतिबिम्ब के मिट जाने पर तत् प्रतिबिम्ब में बिम्बापत्ति आ जाती है परन्तु बिम्बत्व तब तक बना रहता है जब तक सम्पूर्ण प्रतिबिम्ब पुनः उसी में प्रविलीन न हो जाय। बिम्ब बिम्बत्व-प्रतिबिम्बत्वोभय भावानुक्रांत है, प्रत्येक बिम्ब का प्रतिबिम्ब तथा प्रत्येक प्रतिबिम्ब का बिम्ब पृथक् है एतावता प्रतिबिम्ब विशेष की परिसमाप्ति हो जाने पर स्वापेक्षया बिम्बत्व समाप्त हो जाता है तथापि अन्यापेक्षया बिम्बत्व बना ही रहता है। अस्तु, प्रत्येक भक्त का भगवान् विशेषतः उसका अपना होते हुए भी सर्वसम्भजनीय, सर्व प्राणि-परमप्रेमास्पद भी है। एतावता जिस अनन्यता से भक्त अपने आराध्य को भजता है वैसी ही अनन्यता से आराध्य भी भक्त को भजता है। अस्तु, भगवान् में भी रसिकता एवं अनन्यता दोनों ही सांगोपांग रूप से सम्पादित होती है। तब भी, भगवान् श्रीकृष्ण अपने अतिशय शैथिल्य के कारण ही अपने अपकर्ष एवं प्रेम विह्वल गोपांगनाओं का उत्कर्ष स्थापित करते हुए स्वयं को उनका अनुबन्धक बना लेते हैं। 'इत्थं भगवतो गोप्य: श्रुत्वा वाच: सुपेशला:। अर्थात, भगवान् श्रीकृष्ण की उपर्युक्त मधुर एवं मनोहरा वाणी को सुनकर गोपांगनाएँ विरहजन्य समस्त शोक-संताप से मुक्ह हो गईं; साथ ही अपने सौन्दर्य-माधुर्य-निधि, परमप्रेमास्पद, प्राणवल्लभ के अंग-संग को प्राप्त कर सफल-मनोरथ हुईं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्री. भा. 10/33/1