गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 19भक्तमतानुसार भगवान अनन्य भी हैं। वे कहते हैं- ‘श्री राधामेव जानन् व्रजपतिरनिशं कुन्जवीथीमुपास्ते’ नित्य-निकुन्जमन्दिराधीश्वर श्रीकृष्णचन्द्र राधारानी से अन्य किसी को जानते ही नहीं। ‘नारदादींश्च भक्तान्’ नारदादि भक्तों के भी कदापि दर्शन नहीं देते। श्रीदामा आदि सखाजनो से भी नहीं मिलते। वे तो केवल नित्य-निकुन्जेश्वरी, मन्दिराधीश्वरी राधारानी को ही जानते हैं। मथुरानाथ श्रीकृष्ण, द्वारिकानाथ श्रीकृष्ण, व्रजेन्द्रचन्द्र श्री परमानन्दकन्द श्रीकृष्णचन्द्र, श्रीमर्द वृन्दावनचन्द्र सच्चिदानन्दघन श्रीकृष्ण तथा नित्य-निकुन्ज-मन्दिराधीश्वर श्रीकृष्णचन्द्र-ये पाँच विभिन्न श्रीकृष्णस्वरूप मान्य हैं। वेदान्त-सिद्धान्तानुसार भी ब्रह्म जगत्-कर्ता नहीं। जगत् का उत्पादन, पालन एवं संहरण ईश्वरीय शक्ति का कार्य है। स्वयं भगवान कहते हैं- ‘मदन्यत् ते न जानन्ति नाहं तेभ्यो मनागपि’[1]अर्थात् मैं भी भक्तों को छोड़कर और कुछ नहीं जानता, एतावता भगवान् में रसिकता एवं अनन्यता दोनों ही है। वेदान्तदृष्ट्या भी इस कथन की उपपत्ति सम्भव है। यथार्थतः वेदान्त-सिद्धान्त में अनेक पक्ष हैं; उनमें एक पक्ष वाचस्पति मिश्र का है। इनके मतानुसार प्रत्येक जीव का भगवान् भिन्न-भिन्न है। ‘तत्तदविज्ञात ब्रह्म एव ईश्वरः’ अर्थात् तत्-तत् जीवों से अविज्ञात ब्रह्म ही अनन्तकोटि ब्रह्माण्डात्मक विश्व का कारण है। विश्वकारण ही ईश्वर है। जीवात्मा अविद्या का दूषण है। जैसे, तत्-तत् दर्शकों से अविज्ञात मायावी ही मायावी-निर्मित तत्-तत् वस्तुओं का कारण होता है, वैसे है, तत्-तत् जीवाश्रित अविद्या का गोचर होकर स्वप्रकाश परब्रह्म अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड का उपादान होकर ईश्वर होता है। अस्तु, प्रत्येक भक्त का अपना भगवान् होता है। वह भक्त में वैसे ही अनन्य होता है जैसे भक्त अपने आराध्य में अनन्य होता है। करमाबाई की खिचड़ी की कथा ज्वलन्त उदाहरण है। गोस्वामी तुलसीदासजी भी कहते हैं - ‘जोगु कुजोगु ग्यानु अग्यानू। जहँ नहिं राम पेम परधानू।।’[2] अर्थात, वह योग ही कुयोग तथा ज्ञान ही अज्ञान है जिसके कारण प्रेम प्राधान्य में न्यूनता सम्भाव हो। उदाहरणतः बालकृष्ण ने मिट्टी खाई; वात्सल्य भाव-पगी परम हितैषिणी माता यशोदा ने छड़ी उठाई; माता की कोपरूपी सूर्य-रश्मियों से भगवद्-मुखारविन्द खिल गया; अपने बालक के मुखारविन्द में अनन्त ब्रह्माण्ड को देखकर माता को ज्ञान हुआ; ज्ञान के कारण वात्सल्यमयी लीला का अन्त हो गया। |