गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 19लोक-दृष्ट्या महाराज युधिष्ठिर का यज्ञ महतातिमहत् अनुष्ठान था परन्तु तप-त्याग-दृष्ट्या उस ब्राह्मण द्वारा किया गया थोड़े-से सत्तू का वह तुच्छतम दान भी दिव्य पुण्यशाली था। निष्कर्ष यह कि केवल मात्र प्रयोजन-सिद्धि ही नहीं, परन्तु भावमय तप-त्याग ही मूल्यांकन का सम्यक् आधार है। भगवान् आप्तकाम, पूर्णकाम, परक-निष्काम, कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तुम्-समर्थ, निरतिशय, सच्चिदानन्दघन हैं। सम्पूर्ण गुण-गण अपनी गुणत्व-सिद्धि हेतु ही निर्गुण भगवान् को भजते रहते हैं। प्रयोजन एवं उत्कर्षपकर्ष की भावना से रहित प्रेम ही फलपर्यवासायी होता है। श्रीदामा का उदाहरण कई बार दिया जा चुका है। भक्त का प्रेम प्रयोजनानपेक्ष उत्कर्षापकर्ष भाव-रहित एवं निरुपाधिक होता है। 'तस्मान्निराशिषो भक्तिर्निरपेक्षस्य मे भवेत[1] ऐसे ही आप्तकाम, पूर्णकाम, परम-निष्काम भक्तों के भगवान् भी ऋणी हो जाते हैं। मैं निरपेक्ष हूँ अतः कोई निरपेक्ष ही मेरी भक्ति कर सकता है; समान में ही वास्तविक प्रेम संभव है। 'न किंचित साधवो धीरा भक्ता ह्येकांतिनो मम्। ‘अपवर्गमपि न परिलसति’ जो अपवर्ग की भी अपेक्षा नहीं करते ऐसे भक्त के लिए भगवान्-कृत कोई प्रयोजन-सिद्धिकर कर्म अपेक्षित नहीं। न भगवान् को अपेक्षा है, न भक्त को वांछा है; सम्पूर्णतः स्वार्थ-रहित हृदय ही प्रेमपूरित हो सकता है। अन्ततोगत्वा तात्पर्य यह कि प्रयोजन-सिद्धि के आधार पर नहीं, अपितु शुद्ध एवं दृढ़ भावना, अनुराग की दृष्टि से ही भक्ति का मूल्यांकन किया जा सकता है। भगवान् ही प्रेमीजन-शिरोमणि हैं-‘जानत प्रीति रीति रघुराई’ उनसे अधिक प्रीति की रीति कौन जान सकता है? |