गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 19‘पिशाचान् दानवान् यक्षान् पृथिव्यां चैव राक्षसान्। अर्थात जो अंगुलि के अग्रभाग से सम्पूर्ण दानव एवं गुह्यकों के हनन में समर्थ है; इतना ही नहीं, केवल संकल्पमात्र से सृष्टि-रचना, पालन एवं संहार में समर्थ है, वह सर्वेश्वर, सर्वशक्तिमान्, सर्वाधिष्ठान प्रभु भी शरणागत हनुमन्तलाल को, बन्दर-भालुओं को अपना उपकारक मानते हैं; हनुमन्तलाल के तो वे चिर ऋणी हैं। भगवान राम स्वयं ही कह रहे हैं- ‘प्रति उपकार करौं का तोरा। सनमुख होइ न सकत मन मोरा।। नित्य-मुक्त भगवान् भी भक्त-प्रेम के ऋणानुबन्ध हैं; यह ऋणानुबन्ध ही भगवान् को सर्वाधिक प्रिय भी है। अस्तु, स्वभावानुसार ही भगवान् श्रीकृष्ण गोपांगनाओं के भी ऋणी हो जाते हैं। ब्रह्मा भी कह रहे हैं - एषां घोषनिवासिनामुत भवान किं देव रातेति न- अर्थात, हे प्रभो! इन गँवार व्रजवासियों के ऋण से आप क्योंकर अनऋण हो पायेंगे यह सोचते-सोचते हमारी बुद्धि परिश्रांत हो जाती है। जिनके सम्पूर्ण देह-गेह, अर्थ, सुहृत्, प्राण, अन्तःकरण, रोम-रोम आप ही में समर्पित है, जिनके अन्यार्थ का ही पूर्णतः बाध हो गया है उन भक्तों से, उन व्रज-सीमन्तिनीजनों से आप क्योंकर अनऋण हो सकते हैं। |