गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 598

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 19

‘पिशाचान् दानवान् यक्षान् पृथिव्यां चैव राक्षसान्।
अङ्गुल्यग्रेण तान् हन्यामिच्छन् हरिगणेश्वर।।’[1]

अर्थात जो अंगुलि के अग्रभाग से सम्पूर्ण दानव एवं गुह्यकों के हनन में समर्थ है; इतना ही नहीं, केवल संकल्पमात्र से सृष्टि-रचना, पालन एवं संहार में समर्थ है, वह सर्वेश्वर, सर्वशक्तिमान्, सर्वाधिष्ठान प्रभु भी शरणागत हनुमन्तलाल को, बन्दर-भालुओं को अपना उपकारक मानते हैं; हनुमन्तलाल के तो वे चिर ऋणी हैं। भगवान राम स्वयं ही कह रहे हैं-

‘प्रति उपकार करौं का तोरा। सनमुख होइ न सकत मन मोरा।।
सुनु सुत तोहि उरिन मैं नाहीं देखेउँ करि बिचार मन माहीं।।’[2]

नित्य-मुक्त भगवान् भी भक्त-प्रेम के ऋणानुबन्ध हैं; यह ऋणानुबन्ध ही भगवान् को सर्वाधिक प्रिय भी है। अस्तु, स्वभावानुसार ही भगवान् श्रीकृष्ण गोपांगनाओं के भी ऋणी हो जाते हैं। ब्रह्मा भी कह रहे हैं -

एषां घोषनिवासिनामुत भवान किं देव रातेति न-
श्चेतो विश्वफ्लात फलं त्वदपरं कुत्राप्ययन मुह्यति।
सद्वेषादिव पूतनापि सकुला त्वामेव देवापिता
यद्धामार्थसुहृत्प्रियात्मतनयप्राणाशयास्त्वत्कृते॥'[3]

अर्थात, हे प्रभो! इन गँवार व्रजवासियों के ऋण से आप क्योंकर अनऋण हो पायेंगे यह सोचते-सोचते हमारी बुद्धि परिश्रांत हो जाती है। जिनके सम्पूर्ण देह-गेह, अर्थ, सुहृत्, प्राण, अन्तःकरण, रोम-रोम आप ही में समर्पित है, जिनके अन्यार्थ का ही पूर्णतः बाध हो गया है उन भक्तों से, उन व्रज-सीमन्तिनीजनों से आप क्योंकर अनऋण हो सकते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वा. रा. 6/18/23
  2. मानस, 5/31/6, 7
  3. श्री. भा. 10/14/35

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
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17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
21. गोपी गीत 19 537

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