गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 595

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 19

रासलीला में गोपांगनाओं को बाह्य-रमण प्राप्त हुआ; श्री कृष्णचन्द्र परमानन्द के मधुर, मनोहर, मंगलमय स्वरूप का सर्वांगीण दर्शन एवं आश्लेष ही बाह्य रमण है। बाह्य-रमण, आन्तर-रमण का साधन है; वाह्य-रमण द्वारा अत्यन्त उत्कण्ठा उद्बुद्ध हो जाने पर स्वभावतः ही आन्तर-रमण होने लगता है। जैसे, द्रवित लाक्षा में ही रंग का स्थायी-भाव सम्भव है, वैसे ही बाह्य-रमण द्वारा द्रवीभूत चित्त में स्थिरता एवं एकनिष्ठता प्रस्फुटित होती है; सुदृढ़ एकलिष्ठा के फलस्वरूप् आन्तर-रमण होने लगता है।

न पारयेऽहं निरवद्यसंयुजां
स्वसाधुकृत्यं विबुधायुषापि वः।
या माभजन् दुर्जरगेहश्रृंखलाः
संवृश्च्य तद् वः प्रतियातु साधुना ।।22।।

अर्थात, भगवान श्रीकृष्ण कह रहे हैं, हे प्रिय सखीजनो! आपने मेरे लिए देह-गेह की उन बेड़ियों को तोड़ डाला है जिनको योगीजन भी नहीं तोड़ पाते; मुझसे तुम्हारा यह मिलन अत्यन्त साधु-कृत्य है; देवताओं के जीवन से भी, तात्पर्य कि अमर होकर अनन्तकाल तक भी मैं तुम्हारे ऋण से उऋण नहीं हो सकता; अपने सौम्य-स्वभाव के कारण तुम मुझको उऋण भी कर दो तो भी मैं तो अपने-आपको सदा ही तुम्हारा ऋणी मानता हूँ। विशिष्ट अर्थ-गाम्भीर्य के कारण यह श्लोक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। भगवान् श्रीकृष्ण गोपांगनाओं से कह रहे हैं, हे गोपांगनाओं, तुम लोगों के इस साधुकृत्य, उत्तम अनुरक्ति से हम कदापि उऋण नहीं हो सकते। सर्वस्व-त्याग-पुरस्सर भगवत्-अधिगमन ही साधु-कृत्य है; विश्व-प्रपंच का समूल परित्याग कर सर्वाधिष्ठान स्वप्रकाश परब्रह्म का अनुसरण करना ही सर्वोच्च साधुकृत्य है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
16. गोपी गीत 14 389
17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
21. गोपी गीत 19 537

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