गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 590

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 19

सभाजयित्वा तमनंगदीपनं
सहासलीलेक्षणविभ्रमभ्रुवा।
संस्पर्शनेनांककृतांघ्रिहस्तयोः।
संस्तुत्य ईषतकुपिता बभाषिरेः ।।15।।

उन गोपांगनाओं ने अनंग को भी प्रकाशित करने वाले, अनंग का भी उद्दीपन करने वाले साक्षात् मन्मथ-मन्मथ सांग-श्यामांग भगवान् श्री कृष्णचन्द्र का विशेष सम्मान किया। किसी गोपिका ने अपनी मन्द-मन्द एवं विलासपूर्ण मुस्कान से उनका स्वागत किया तो किसी ने उनके चरण-कमलों को अपने अंक में रख लिया; भगवदंग-प्रत्यंग सम्मिलन से आनन्दित हुई वे कहने लगतीं। -‘हमारे प्रियतम कितने सुकुमार, कितने मधुर हैं।” साथ ही, भगवत्-विप्रयोगजन्य तीव्र सन्ताप की स्मृति के कारण कभी-कभी रूठकर उलाहना भी देने लगतीं ताकि भगवान् स्वयं भगवान् अपराध स्वीकार कर लें। ऐसी भावानाएँ अनन्य प्रेम की अद्भुत लोकोत्तर उत्कर्ष की ही परिणति है।

एवं मदर्थोज्झितलोकवेदस्वानां हि वों मध्यनुवत्तयेऽबलाः।
माया परोक्षं भजता तिरोहितं मासूयितुं मार्हथ तत् प्रियं प्रियाः।।21।।

अर्थात, भगवान श्रीकृष्ण चन्द्र गोपांगनाओं के प्रति कह रहे हैं कि हे सखियो। यह प्रत्यक्ष ही है कि तुम लोगों ने मेरे लिए लोक-मर्यादा, वेद-मार्ग एवं बन्धु-बान्धवों का त्याग किया और मैं अन्तर्धान हो गया। हे प्रेयसीजनों! मैं भी तुमको परोक्षतः सदा ही भजता रहता हूँ। मुझमें तुम्हारी प्रीति सदा ही अनन्य एवं अखण्ड बनी रहे, इसी हेतु मैं प्रत्यक्षतः अन्तर्धान होते हुए भी परोक्षतः सदा ही तुमको ही भजता रहता हूँ। तुम मेरे प्रेम में दोषानुसन्धान न करो, मैं सदा ही तुम्हारा हूँ और तुम लोग सदा ही मेरी हो। वृषभानु-कुँवरि राधारानी एवं गोपांगनाओं में अनन्यता एवं रसिकता दोनों ही है परन्तु भगवान् में रसिकता है, अनन्यता नहीं। स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण ही कह रहे हैं ‘न पारयेऽहं निरवद्यसंयुजाम्’[1] हे गोपांगनाओं, मैं तुम्हारे ऋण से उऋण नहीं हो सकता।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्री० भाग्० 10/32/22

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
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9. गोपी गीत 7 256
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