गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 19शरच्चन्द्रांशुसन्दोहध्वस्तदोषातमः शिवम्। शरतलीन चन्द्र-रश्मियों के सन्दोह से रात्रि का अन्धकार नष्ट हो गया तथा परम कल्याणमय शिवमय प्रकाश प्रादुर्भूत हुआ; कृष्ण-सखी भगवती यमुना, कालिन्दी ने अपने हस्त तरल तरंगो से अपने पुलिन को रास-लीला-हेतु मार्जित किया; भगवान् श्रीकृष्ण चन्द्र की अष्ट पटरानियों में एक भगवती कालन्दी भी हैं। सप्तकुल पर्वतों में एक कलिन्द पर्वत है; ‘कलिं द्यति खण्डयति कलिन्दः’ जो कलि, कलह का ,खण्डन कर दे वही ‘कलिन्द’ है। कुल-पर्वत कलिन्द की पुत्री कालिन्दी है। कालिन्दी पुलिन का ही यह प्रभाव है कि उसमें प्रविष्ट होने वाली सहस्र कोटि गोपांगनाएँ परस्पर विरोध एवं मतभेद को भूलकर, सम्पूर्ण कठोरता एवं विषमता को भूलकर अविरोधेन संघठित हो रासलीला में सहयोगी बनसकीं। तद्दर्शनाह्लादविधूतहृद्रुजो भगवान् श्रीकृष्ण के दर्शन से गोपांगनाओं के हृदय में जो ताप, हृद्रोग-रूप कामादि, कन्दर्पादि थे उन सबका विधूनन हो गया। भगवत्-स्वरूप-चिन्तन से ही साधक के सम्पूर्ण मनोविकारों का प्रशमन हो जाता है। भगवद्दर्शन से प्रादुर्भूत होने वाले लोकोत्तर आह्लाद द्वारा साधक के हृद्गत सम्पूर्ण कामकन्दर्पादि मनोविकार एवं ताप प्रकम्पित हो जाते हैं। जैसे, मनोरथ का अन्त होने पर श्रुतियाँ मौन होकर ‘नीति नेति’ वचनों के द्वारा अतद् व्यावर्तन द्वारा परम तत्त्व में पर्यवसित होती हैं, वैसे ही, विभिन्न मनोरथों का अन्त हो जाने पर साधक के भी सम्पूर्ण पाम-ताप शोक-सन्ताप का समूल उच्छेदन तथा परमाननद का अविर्भाव होता है। मनरूप रथ ही मनोरथ है। इस मनरूप रथ की गति जहाँ समाप्त हो जाय। |