गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 19वृन्दावन-धाम एवं वहाँ हुई रासलीला के सम्पूर्ण उपकरणों का प्राकट्य ही भगवान् की योगमाया द्वारा हुआ एतावता वृन्दावन-धाम में सहस्र कोटि गोपांगनाओं की स्थिति अमान्य नहीं। वृन्दावन-धाम में की गई भगवान् श्रीकृष्ण चन्द्र की लीलाओं का ऐतिहासिक प्रमाण हो अथवा न हो, प्रस्तुत प्रसंगानुसार उनके सैद्धान्तिक पक्ष की ही व्यख्या वांछित है। सूक्ष्मातिसूक्ष्म कुण्डलिनी शक्ति के तेज में ही रासलीलार्न्तगत सम्पूर्ण भावों का ध्यान है। शरीर की बहुसंख्यक नाडियों में इड़ा एवं पिंगला ही विशेष महत्त्वपूर्ण हैं; इनके मध्य सुषुम्ना नाड़ी है; सुषुम्ना नाड़ी के मध्य ब्रह्मनाड़ी और ब्रह्मनाड़ी के मध्य सुक्ष्मातिसूक्ष्म तेजोमय कुण्डलिनी शक्ति विराजमान है; यह कुण्डलिनी नाडी ‘बिसतन्तु तनीयसी’ बिसतन्तु से भी अधिक सूक्ष्म है। कमलनाल से निकलने वाले श्वेत-सूक्ष्म तन्तु ही बिसतनतु हैं। ‘विवस्वदयुभास्वरप्रकाशी’ यह सूक्ष्मातिसूक्ष्म कुण्डलिनी दस हजार सूर्यानारायण के सामने प्रकाशमय तेजोमय है; ‘शतसुघा-मयूखशीतला’ शत-शत चन्द्रमा के तुल्य अत्यंत शीतल है; विधुत् पुंजपिंजरा’ विधुत द्युतिरू पुंज के समान पिंजरवर्ण है। इस अद्भुत रूपा कुण्डली में ही चतुर्दल, षट्दल, दशदल, द्वादशदल, चतुर्दशदल एवं सहस्रदल कमल अन्तर्गत विद्यमान हैं; इसमें ही ब्रह्मरन्ध्र में सुधा-समुद्र है; सुधा-समुद्र के अन्तर्गत मणिद्वीप; मणिद्वीप के अन्तर्गत मन्दार-कला आदि निव-वाटिका हैं; इन सबके मध्य चिन्तामणि मन्दिर है; इस मणिमय मन्दिर के मध्य मणिमय सिंहासन पर सपरिकर भगवत्-स्वरूप का प्राकट्य होता है। व्यवहारतः भी, स्वप्न-काल में इन सूक्ष्मातिसूक्ष्म नाड़ियों में ही अकाशादि सम्पूर्ण दृश्यमान जगत्-प्रपंच का दर्शन होता है। अस्तु, भाव एवं उपासनादृष्ट्या वृन्दावन-धाम में सहस्रकोटि गोपांगनाओं का अपने-अपने परिकर से संयुक्त होकर विद्यमान होना कदापि असंगत नहीं कहा जा सकता। ‘तास्ताः क्षपाः प्रेष्ठतमेन नीता मयैव वृन्दावनगोचरेण। अर्थात, गोपांगनाओं को अपने प्राणनाथ, प्राणवल्लभ, प्रियतम मदन-मोहन श्यामसुन्दर के संग रासलीला करते हुए अनन्त ब्राह्मी रात्रियाँ बीत गईं तथापि उनको भगवान् श्रीकृष्ण के सन्निवेष में क्षणार्धवत् ही प्रतीत हुई। एक ब्रह्मरात्रि अनन्त कोटि सामान्य रात्रियों के तुल्य होती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्री० भा० 11/12/11