गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 19संसार में प्राण-स्थिति की कामना से अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड-नायक सर्वेश्वर ने ‘तस्मिन् गर्भं दघाम्यहम्’[1] महत् ब्रह्म ने प्रकृति तत्त्व में गर्भाधान किया। फलतः अचेतन प्रकृति हुई। सत्त्व-रज-तम की साम्यावस्था ही जड़ प्रकृति है। शुक्र (वीर्य) ही गर्भाधान का कारण है। शुक्र तेज है। सर्वांग का रस-सार ही तेज है। ‘अंगादंगात् संभवसि।’ जैसे दुग्ध के कण-कण मे रहने वाला घृत ही दुग्ध का सारशुक्र है, वैसे ही, अंग-प्रत्यंग में रहने वाला तेज, शुक्र है। स्वप्रकाशच्युत, ब्रह्मच्युत, इच्छावयन से सत्त्व-रज-तम की साम्यावस्था-भूत जड़ प्रकृति भी चिदाभाससमन्वित हो चेतित हो उठी; वह तेज ही प्रकृति में प्रतिबिंबित हुआ। ब्रह्म स्वयं तेजस्- स्वरूप ही है। चित्त की छाया ही शुक्र है। वह तेज ही प्रकृति में प्रतिबिंबित होता हैः यही प्रकृति का गर्भाधान है; ‘मम योनिर्महद् तस्मिन् गर्भं गधम्यहम्’ [2] ब्रह्म शब्द महत् विशेषणसंयुक्त होकर प्रकृति-वाचक हो जाता है। सत्त्व-रज-तक की साम्यावस्था-प्रकृति ही सर्वाधिष्ठान, सर्वपति, परब्रह्म की योनि है। ‘गणानां त्वा गणपतितं हवामहे वसो मम। आहमजानि गर्भधमात्वम-जासि गर्भधम्।[3] मंत्र द्वारा याज्ञिक पद्धति के अनुसार गणेश का ही स्तवन किया जाता है। मंत्र के तीन प्रकार के अर्थ होते हैं- आध्यात्मिक, आधिदैविक एवं आधियाज्ञिक। प्रत्येक अर्थ अपने स्थान पर उपयुक्त है। आध्यात्मिक एवं आधिदैविक दृष्टि में गणपति शब्द अनन्तकोटि ब्रह्माण्डनायक का ही वाचक है। महदादि, इन्द्रियादि, भूम्यादि, सम्पूर्ण गणों के एक मात्र पति सर्वाधिष्ठान, सर्वेश्वर परात्पर परब्रह्म ही गणपति हैं। वही ‘प्रियाणन्त्वा प्रियपति’ भी हैं। सर्वाधिष्ठान सर्वेश्वर ही सम्पूर्ण गणों का परमप्रिय ‘प्रियाणान्त्वा प्रियपति’ भी है। |