गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 7भगवत्-हृदयस्थ पूर्णानुराग रस सार-सागर समुद्भूत, निर्मल, निष्कलंक चन्द्र-स्वरूपिणी श्री वृषभानु-नन्दिनी राधा रानी एवं श्री राधा-रानी के हृदय में विराजमान श्रीकृष्ण विषयक प्रेम-रससार-सागर समुद्भूत चन्द्ररूप ब्रजेन्द्र-नन्दन श्रीकृष्ण हैं; यह प्रेम सदानन्दैक रस-स्वरूप ही है क्योंकि विषय एवं आश्रय दोनों ही रस-स्वरूप हैं। पारमार्थिक सत्य की अपेक्षा किंचित् न्यून सत्ता का एक और सत्य माना जाता है जो भजनोपयोगी होता है; अतः पारमार्थिक अद्वैत सिद्धान्त ज्यों का त्यों बना रहता है। पारमार्थिक अद्वैत ज्ञान होने पर यदि भजनोपयोगी द्वैत मान कर भगवान में भक्ति की जाती है तो ऐसी भक्ति सैकड़ों मुक्तियों से भी अधिकाधिक श्रेष्ठ है। ‘पारमार्थिकमद्वैतं द्वैतं भजन हेतवे। अर्थात् प्रत्येक चैतन्याभिन्न पर-ब्रह्म का विज्ञान होने के पूर्व द्वैत बन्धन का कारण है किन्तु विज्ञान के पश्चात् भेद-मोह के निवृत्त हो जाने पर मुक्ति के लिए भावित द्वैत अद्वैत से भी श्रेयस् है।
‘गुप्त प्रेम सखि सदा दुरैये’ प्रेम की रस-स्वरूपता को बनाये रखने के लिए उसका गोपन परमावश्यक है। एतावता अपनी हृच्छायाग्नि-उपशमन की प्रार्थना के ब्याज से ही गोपांगनाएँ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्द की आन्तरिक भावनाओं को उत्तेजित करना चाहती हैं। वे कह रही हैं कि हे कान्त! हम लोग स्वयं ही कंदर्पं-व्यथा से व्यथित हैं; अतः आप अपने इन कोमल चरणारविन्दों को हमारे उरस्थल पर धारण करें। अपने दिव्य सौन्दर्य, माधुर्य से, दिव्य अंगरागादिक एवं भूषण वसनादिकों से अपने प्रियतम श्रीकृष्ण परमात्मा का मनोरंजन करना ही उनकी एकमात्र अभिलाषा है। |