गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 5ब्रह्मा का सुख सर्वाधिक सुख है। यह सुख भी जिसकी तुलना में तुषारकणमात्र है उस सम्पूर्ण सुख के उद्गम-स्थल एकमात्र अनन्तकोटि ब्रह्माण्डनायक अखिलेश्वर, अचिन्त्य, अनन्त, परमानन्दघन, सुधासिन्धु प्रभु ही हैं, एतावता एकमात्र भगवान् ही कान्त हैं; जैसे यवनिका से हटते ही मंच पर उपस्थित दृश्य दृष्ट हो जाता है वैसे ही मायारूप यवनिका के हटते ही तत्त्व-साक्षात्कार हो जाता है। ‘द्रौण्यस्त्रविप्लुष्टमिदं मदंग सन्तानबीजं कुरुपाण्डवानाम्। द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा ने उत्तरा के कुक्षिगत बीज का विनाश कर पाण्डवों को निर्मूल कर देने का प्रयास किया; गर्भस्थ शिशु परीक्षित् ने देखा कि कोई तेजोमय प्रकाशमय दिव्य परमानन्द अपनी गदा के तेज से उस ब्रह्मास्त्र के तेज का विधूपनन करते हुए उसकी रक्षा कर रहा है। तात्पर्य कि विश्वंभर भगवान् सर्वव्याप्त होते हुए भी माया-यवनिका द्वार प्रावृत रहते हैं; पूर्ण विश्वास एवं अनन्य भक्ति होने पर ही माया-यवनिका का उच्छेद सम्भव होता है। इसी तरह असंख्यात गोपांगनाओं के विश्वास एवं भक्तियुक्त हृदय में भगवत्-श्रीकर-सरोरुह का एककालावच्छेदेय प्राकट्य हुआ, फलतः प्रत्येक गोपांगना ने ‘कामदं श्रीकर-सरोरुहं’ को अपने मस्तक पर एककालावच्छेदेन विन्यस्त अनुभव किया। ‘श्रीकरग्रहम’ जैसी युक्ति से यह सूचित किया जा रहा है कि भगवान् प्रियजन-वश्य हैं। योगीन्द्र, मुनीन्द्र अमलात्मा परमहंस के ध्येय, ज्ञेय, परमाराध्य, अनन्तकोटि ब्रह्माण्डनायक, अखिलेश्वर, ‘कर्तुमकर्तुमन्यथाकतु समर्थ’, सर्वतंत्र स्वतंत्र प्रभु भी भक्तजन-परतंत्र हैं, परम रसिक हैं। अथवा, इस उक्ति से अनन्त ब्रह्माण्ड की ऐश्वर्याधिष्ठात्री, सौन्दर्य-माधुर्य की अधिष्ठात्री भगवती लक्ष्मी के प्रति गोपांगनाओं का सापत्न्य द्वेषभाव भी अभिव्यक्त होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भा. 10। 1। 6