गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 2

Prev.png

गोपी गीत-करपात्री महाराज

श्रीमद्भागवत ज्ञान-भक्ति-वैराग्य का अथाह (गंभीर) समुद्र है।

श्रीमद्भागवत के अध्ययन अथवा श्रवण से मनुष्य यह समझ पाता है कि प्रत्येक प्राणि में परमेश्वर का निवास है। यह ज्ञान जब मनुष्य को हो जाता है, तब अधर्म से उसका अभिनिवेश समाप्त हो जाता है। क्योंकि दूसरों को दुःखी करना अपने (स्वयं) को ही दुःखी बनाने के समान है। तब सच्चे धर्म में उसकी स्थिति सहजभाव से हो जाती है। उसका हृदय दया से आर्द्र हो जाता है। वह वास्तव में अहिंसक रहता है। परस्पर प्रेम और प्राणिमात्र के प्रति दया का भाव स्थापित करने के लिये इससे बढ़कर अन्य कोई साधन नहीं है।

निष्कर्ष यह है कि मन की वृत्तियों को प्रेममय बनाना आवश्यक है। भगवच्चरणारविन्द में, भगवत्सौन्दर्य के दर्शन में, भगवान के गुण-गणों के श्रवणी-कीर्तन में तथा भगवान की मधुरलीला के माधुर्य में जिनकी मनोवृत्ति प्रेममय हो जाती है, उनका मन सांसारिक सुखाभासों में नहीं उलझा करता। वे तो वास्तविक सुख-आनन्द की अभिलाषा किया करते हैं। जिसके मन को भाव प्रेममय हो जाता है, उसी को भगवान अपना भक्त समझते हैं।

इस प्रेममयी भक्ति की महिमा को कहते हुए यशोदानन्दन भगवान श्रीकृष्णचन्द्र अपने सखा भक्तप्रवर उद्धव से कह रहे हैं-

न साधयति मां योगो न सांख्यं धर्म उद्धव।
न स्वाध्यायस्तपस्त्यागो यथा भक्तिर्ममोर्जिता।।
भक्त्याऽहमेकया ग्राह्यः श्रद्धयात्मा प्रियः सताम्।
भक्तिः पुनाति मन्निष्ठा श्वपाकानपि संभवात्।।
धर्मः सत्यदयोपेतो विद्या वा तपसान्विता।
मद्भक्त्याऽपेतमात्मानं न सम्यक् प्रपुनाति हि।।
कथं विना रोमहर्ष द्रवता चेतसा विना।
विनाऽऽनन्दाश्रुकलया शुध्येद् भक्त्या विनाऽऽशयः।।

Next.png

संबंधित लेख

गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
16. गोपी गीत 14 389
17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
21. गोपी गीत 19 537

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः