गोपी गीत-करपात्री महाराजश्रीमद्भागवत ज्ञान-भक्ति-वैराग्य का अथाह (गंभीर) समुद्र है। श्रीमद्भागवत के अध्ययन अथवा श्रवण से मनुष्य यह समझ पाता है कि प्रत्येक प्राणि में परमेश्वर का निवास है। यह ज्ञान जब मनुष्य को हो जाता है, तब अधर्म से उसका अभिनिवेश समाप्त हो जाता है। क्योंकि दूसरों को दुःखी करना अपने (स्वयं) को ही दुःखी बनाने के समान है। तब सच्चे धर्म में उसकी स्थिति सहजभाव से हो जाती है। उसका हृदय दया से आर्द्र हो जाता है। वह वास्तव में अहिंसक रहता है। परस्पर प्रेम और प्राणिमात्र के प्रति दया का भाव स्थापित करने के लिये इससे बढ़कर अन्य कोई साधन नहीं है। निष्कर्ष यह है कि मन की वृत्तियों को प्रेममय बनाना आवश्यक है। भगवच्चरणारविन्द में, भगवत्सौन्दर्य के दर्शन में, भगवान के गुण-गणों के श्रवणी-कीर्तन में तथा भगवान की मधुरलीला के माधुर्य में जिनकी मनोवृत्ति प्रेममय हो जाती है, उनका मन सांसारिक सुखाभासों में नहीं उलझा करता। वे तो वास्तविक सुख-आनन्द की अभिलाषा किया करते हैं। जिसके मन को भाव प्रेममय हो जाता है, उसी को भगवान अपना भक्त समझते हैं। इस प्रेममयी भक्ति की महिमा को कहते हुए यशोदानन्दन भगवान श्रीकृष्णचन्द्र अपने सखा भक्तप्रवर उद्धव से कह रहे हैं- न साधयति मां योगो न सांख्यं धर्म उद्धव। |