गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 3हे व्रजेन्द्रनन्दन! आप ऋषभ हैं अतः हमारी रक्षा-हेतु दीक्षित हैं तथापि हमारी रक्षा नहीं कर रहे हैं। हमारी रक्षा हेतु आपको कोई त्याग, कोई बलिदान भी नहीं करना पड़ रहा है; केवल आपके मुखचन्द्र का दर्शन ही पर्याप्त है। ‘वितर वीर नस्तेऽघरामृतम्’ हे वीर! अपने अधरामृत का वितरण करें। ‘इतररागविस्मारणं नृणां’ आपका अधरामृत सम्पूर्ण इतर रागों का विस्मारक है; वही वस्तु जो आपके लिए अत्यन्त सरल किंवा तुच्छ, नगण्य है हमारे लिए सर्वस्व है; तात्पर्य अधिकार से है। स्वयं लोभरूप आपका अधर ही इस विशुद्ध रस का वितरक है। श्रीमद्भागवत के द्वाद्वश-स्कंध में भगवतस्वरूप का आध्यात्मिक विवेचन है। तदनुसार धर्म ही भगवान का वक्षःस्थल है, अधर्म पीठ एवं साक्षात लोभ अधर हैं। भगवान के मंगलमय मुखचन्द्र की सुमधुर अधर-सुधा ही सर्वोत्कृष्ट धन है। लोभ-तत्त्व की अधिष्ठात्री देवता स्वयं लोभ ही इस अमूल्य धन का वितरक है। महाभारत में एक रोचक प्रसंग है। पाण्डवों ने राजसूय यज्ञ किया, भगवान श्रीकृष्ण ने दुर्योधन को ही कोषाध्यक्ष बना दिया; कौरवों से अपने मनोमालिन्य के कारण पाण्डवगण आशंका-ग्रस्त हो उठें; भगवान श्रीकृष्ण ने उनको आश्वासन दिया; भगवान श्रीकृष्ण जानते थे कि दुर्योधन के हाथ में ऐसी रेखाएँ पड़ी हैं जिनके प्रभाव से वह चाहे जितना खर्च करे उसका खजाना सदा भरा ही रहेगा; जितना वह खर्च करे उतना ही खजाना भर जाय। कोषाध्यक्ष नियुक्त होने पर दुर्योधन द्वेषवशात् खजाना लुटाने लगा परन्तु उसकी अपनी ही रेखाओं से प्रेरित पाण्डवों का कोष सदा भरभूप ही रहा। फलतः पाण्डवों की ही प्रसिद्धि हुई। तात्पर्य कि योग्य व्यक्ति को ही कोषाध्यक्ष बनाना कल्याणकारी होता है। आचार्यमतानुसार, साधन में विधि-निषेध होता है; फल विधि-निषेधातीत है। वल्लभाचार्यजी ने भी फलाध्याय लिखा है; वस्तुतः सम्पूर्ण ‘वेणुगीत’ ही फलाध्याय है। भगवान सर्वापेक्षया फलस्वरूप हैं; उनके मुखचन्द्रेतर अन्य अवयवों में साध्य-साधन-भाव भी हैं, मुखारविन्द केवल मात्र साध्य-फलस्वरूप है। |