गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 123

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 2

‘साधुजात’ अर्थात जिसकी उत्पत्ति का सम्यक् विवेचन सम्भव हो एवं जिसमें कार्य-कारण की सुव्यवस्था हो। इस पद में बहुव्रीहि समास मान लेने पर इसका अर्थ होगा अनिर्वचनीयोत्पत्तिमत्। जैसे आनन्द चैतन्यात्मक ब्रह्म से दुःखात्मक तथा जड़ प्रपंच का आविर्भाव सम्भव है वैसे ही परमार्थ सत्य परमात्मा से मिथ्या प्रपंच का प्रादुर्भाव मानना युक्त है। अस्तु, परमानन्द स्वप्रकाश, परमार्थ-सत्य भगवान से ही दुःखात्मक, जड़ात्मक मिथ्या, अर्थात् अपारमार्थिक, व्यवहारोपयोगी, व्यावहारिक प्रपंच का प्रादुर्भाव होता है; जगत का मूल अज्ञान है, स्वप्रकाश चित् अखण्ड बोध से भिन्न, चिदभिन्न अचित ही अज्ञान है। जैसे अग्नि को दाहिका शक्ति किंवा बीज की अंकुरोत्पादिनी शक्ति अग्नि अथवा बीज से विलक्षण होती है वैसे ही त्रिकालाबाध्य सद्रूप ब्रह्म की प्रपंचोत्पादिनी शक्ति भी उससे विलक्षण एवं अनादि है; त्रिकालाबाध्य रूप सत् से विलक्षण उसकी शक्ति शुद्ध सद्रूप अधिष्ठान के बोध से बाधित हो जाती है परन्तु ब्रह्म-तत्त्व कदापि बाधित नहीं होता। ‘भेदोभेद्यं भिन्नत्ति, स्वमपि भिन्नति’ जैसे भेद अन्य भेदों को भिन्न करता है वैसे ही स्वयं को भी भिन्न कर लेता है। नैयायिकों का मत है, ‘ज्ञेयं जानाति स्वमपि जानाति।’ आत्मा ज्ञेय को भी जानता है, अपने को भी जानता है। ‘अज्ञानं जगत कल्पनाबीजम्’ भवति, स्वकल्पनाबीजमपि भवति’ अज्ञान ही जगत एवं स्वकल्पना का भी कारण होता है। एतावता परमात्मनिष्ठ वह शक्ति जिससे परमात्मा स्वयं को सरल प्रपन्चरूप से व्यक्त करता है सत् एवं असत् दोनों से विलक्षण होने के कारण अनिर्वचनीय है; ‘अनिर्वचनीयोत्पत्तिमत्’ यही साधुजात जगत है।

‘सत् सरसिजम्’ अर्थात् जो सरसिज सत् है, जो अभावरूप नहीं है; नैयायिक सिद्धान्तानुसार अज्ञान ज्ञानाभावरूप है। ‘अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः’[1] ज्ञान-स्वरूप ब्रह्म अज्ञान से आच्छादित है। ज्ञानाभावरूप अज्ञान में आवरण-कर्तृत्व नहीं हो सकता; भावाभाव के असमकालिक होने से ज्ञान से ज्ञानाभावरूप अज्ञान का नाश भी नहीं हो सकता अतः अज्ञान सदसद्विलक्षण माया शक्तिरूप ही है। ‘नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः’[2] इत्यादि वचनों से माया द्वारा ज्ञानानन्दस्वरूप ब्रह्म का आवरण कहा गया है। एतावता योगमाया एवं अज्ञान दोनों ही आवरण होने के कारण अचित् हैं। स्वप्रकाश अखण्डबोध चैतन्य से भिन्न ही अचित् अथवा अज्ञान है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्री. भ. गी. 5।15
  2. श्री. भ. गी. 7।25

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
16. गोपी गीत 14 389
17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
21. गोपी गीत 19 537

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