गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 2‘स्वमूर्त्या लोकलावण्यनिर्मक्त्या लोचनं नृणाम्। अर्थात, भगवान के मंगलमय श्रीअंग के लावण्यामृत-सिन्धु के उच्छलित बिन्दुमात्र से ही समस्त ब्रह्माण्डान्तर्गत अनन्तानन्त वस्तुओं में लावण्य प्रस्फुटित हुआ। ‘सीकर ते त्रैलोक्य सुपासी।’ अस्तु, सम्पूर्ण रसाभिव्यक्ति भगवद्रूप का ही परिणाम है। ‘देवी भागवत’ में एक अत्यन्त मार्मिक कथा है; वृन्दावन धाम में कोई शोभा नामक नायिका थी। भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के संग वह रमण कर रही थी तभी राधारानी वहाँ पधारीं; राधारानी को देखकर वह नायिका भयभीत हो अन्तर्धान हो गई। इसी तरह कान्ति, आभा, प्रभा आदि भिन्न-भिन्न नाम की गोपांगनाएँ भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के संग विहार करती रहती हैं परन्तु राधारानी के आते ही भयभीत हो अन्तर्धान हो जाती हैं। ऐसी सम्पूर्ण कथाओं का तात्पर्य यही है कि शोभा, आभा, प्रभा, कान्ति आदि समस्त लोकोत्तर कल्याण-गुण-गणों की अधिष्ठात्री देवियाँ मूर्तिमती होकर सच्चिदानन्द प्रभु से ही विहार करती हैं परन्तु नित्यनिकुन्जेश्वरी राधारानी के आ जाने पर लुप्त हो जाती हैं; नित्यनिकुन्जेश्वरी राधारानी की अद्भुत अद्वितीय कान्ति, शोभा, आभा, प्रभा की तुलना में अन्य सम्पूर्ण कान्ति, शोभा, आभा, प्रभा तेजहीना हो जाती हैं, फीकी पड़ जाती हैं, विलीन हो जाती हैं। परब्रह्मरूप सुख का विशेषोल्लास होने पर विविध प्रकार के वैषयिक सुख, विविध प्रकार के सविशेष रस संसार में प्रवृत्त होते हैं। परब्रह्म के निर्विकार रूप से अवस्थित रहने पर तृतीय पुरुषार्थस्वरूप काम, सम्पूर्ण रस भी परब्रह्म स्वरूप में ही अवरूद्ध रहता है। अस्तु, एक निर्विकार, अनन्त, अखण्ड परात्पर पर ब्रह्म परमात्मा का रूपरस ही परमानन्दकन्द श्रीकृष्णचन्द्र, नित्यनिकुन्जेश्वरी राधारानी, अनन्तानन्त व्रजांगनाएँ, विभिन्न लीलाएँ एवं लीला-परिकर, आलम्बर एवं उद्दीपन अनेकानेक स्वरूपों में विकसित होकर ‘रसानां समूहो रासः’ बन गया। गोपांगनाएँ कह रही हैं, हे वरद! हे सुरतनाथ! हम सब आपकी अशुल्कदासिका हैं। ‘मार्गनिर्वाहकं द्रव्यं प्रतिबन्धनिवर्तकं शुल्कः।’ मार्ग-निर्वाहक एवं प्रतिबन्ध-निवर्तक द्रव्य ही शुल्क है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भा. 11।1।6