गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
चौथा प्रकरण
आत्मा का यह नित्य का श्रेय और सुख आत्मा की शांति में है; इसी लिये बृहदारणयकोपनिषद [1] में कहा गया है कि “अमृतत्त्वस्य तु नाषस्ति वितेन’’ अर्थात सांसारिक सुख और सम्पति के यथेष्ट मिल जाने पर भी आत्मसुख और शान्ति नहीं मिल सकती। इसी तरह कठोरपनिषद में लिखा है कि जब मृत्यु ने नचिकेता को पुत्र, पौत्र, पशु, धान्य, द्रव्य इत्यादि अनेक प्रकार की सांसारिक सम्पति देनी चाही तो उसने साफ जवाब दिया कि “मुझे आत्मविद्या चाहिये, सम्पति नहीं’’; और “प्रेय”अर्थात इन्द्रियों को प्रिय लगने वाले सांसारिक सुख में तथा “श्रेय”अर्थात आत्मा के सच्चे कल्याण में भेद दिखलाते हुए[2] में कहा है किः- श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्यमेतस्तौ संपरीत्य विविनक्ति धीरः। श्रेयो हि धीरोअभिप्रेयसो वृणीते प्रेयो मन्दो योगक्षेमाद् वृणीते।। “जब प्रेय (तात्कालिक बाह्य इन्द्रियसुख) आर श्रय (सच्चा चिरकालिक कल्याण) ये दोनों मनुष्य के सामने उपस्थित होते हैं तब बुद्धिमान मनुष्य उन दोनों में से किसी एक को चुन लेता है। जो मनुष्य यथार्थ में बुद्धिमान होता है, वह प्रेय की अपेक्षा श्रेय को अधिक पसन्द करता है; परन्तु जिसकी बुद्धि मन्द होती है, उसको आत्मकल्याण की अपेक्षा प्रेय अर्थात बाह्यसुख ही अधिक अच्छा लगता है।’’ इसलिये यह मान लेना उचित नहीं कि संसार में इन्द्रियगम्य विषय-सुख ही मनुष्य का ऐहिक परम उद्देश्य है तथा मनुष्य जो कुछ करता है वह सब केवल बाह्य अर्थात् आधिभौतिक सुख ही के लिये अथवा अपने दुःखों को दूर करने के लिये ही करता है। इन्द्रियगम्य बाह्यसुखों की अपेक्षा बुद्धिगम्य अन्तःसुख की, अर्थात आध्यात्मिक सुख की, योग्यता अधिक तो है ही; परन्तु इसके साथ साथ एक बात यह भी है कि विषय-सुख अनित्य है। यह दशा नीति-धर्म की नहीं है। इस बात को सभी मानते हैं कि अहिंसा, सत्य आदि धर्म कुछ बाहरी उपाधियों अर्थात सुख-दुःखों पर अवलंबित नहीं है, किंतु वे सभी अवसरों के लिये और सब काल में एक समान उपयोगी हो सकते हैं; अतएव वे नित्य हैं। बाह्य बातों पर अवलंबित न रहने वाली, नीति-धर्मों की, यह नित्यता उनमें कहाँ से और कैसे आई- अर्थात इस नित्यता का कारण क्या है? इस प्रश्न का आधिभौतिक- वाद से हल होना असंभव है। कारण यह है कि, यदि बाह्यसृष्टि के सुख-दुःखों के अवलोकलन से कुछ सिद्धांत निकाला जाय तो, सब सुख-दुःखों के स्वभावतः अनित्य होने के कारण, उनके अपूर्ण आधार पर बने हुए नीति-सिद्धांत भी वैसे ही अनित्य होंगे। और, ऐसी अवस्था में, सुख-दुःखों की कुछ भी परवाह न करके सत्य के लिये जान दे देने के सत्य-धर्म की जो त्रिकालबाधित नित्यता है, वह “अधिकांश लोगों का अधिक सुख’’ के तत्त्व से सिद्ध नहीं हो सकेगी। इस पर यह आक्षेप किया जाता है कि जब सामान्य व्यवहारों में सत्य के लिये प्राण देने का समय आ जाता है तो अच्छे अच्छे लोग भी असत्य पक्ष ग्रहण करने में संकोच नहीं करते, और उस समय हमारे शास्त्रकार भी ज्यादा सख्ती नहीं करते; तब सत्य आदि धर्मों की नित्यता क्यों माननी चाहिये? परन्तु यह आक्षेप या दलील ठीक नहीं है; क्योंकि जो लोग सत्य के लिये जान देने का साहस नहीं कर सकते वे भी अपने मुंह से इस नीति-धर्म की नित्यता को माना ही करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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