विषय सूची
श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
रासलीला-चिन्तन-2
इसलिये जो युक्ति अब तक दी गयी प्रमाण दिया गया; यह है तो बहुत थोड़ा पर समझने वाले लोग इतने से ही समझ जायेंगे कि भगवान का स्वरूपानन्द वितरण यहाँ पर है-यह रमण का अर्थ है। जीव गोस्वामी ने अपनी टीका में लिखा है-
अपने किसी भी प्रियजन भक्त के आनन्दवर्धनार्थ जो कुछ भी कार्य है भगवान करते हैं। अतएव प्रेमवती व्रज सुन्दरियों के मनोरथ को पूर्ण करना ही यहाँ भगवान का मुख्यतर प्रयोजन है। वहीं यहाँ पर सर्वश्रेष्ठ आनन्दास्वादन है। इस परम तत्त्व के प्रकाश के लिये ही श्रीमद्भागवत के पाँच इन्द्रियों के समान यह पाँच अध्याय हैं। ये भगवान के साथ गोप रमणियों के क्रीडा योग्य लीला का वर्णन रास-क्रीडा के नाम से वर्णित है। यहाँ यह कहते हैं कि भगवान जिनको प्यार करते हैं; वही भगवान के प्रिय है और भगवान भी उनके प्रिय हैं। यह गीता में भगवान ने घोषणा की, चाहे काल कुछ बताये पर कहा-‘भक्तिमान्यः स मे प्रियः’[1] जो भक्तिमान है वह मेरा प्रिय है। भक्तिमान की प्रियता भगवान को स्वीकार है, विशेष रूप से। भगवान सब जीवों में समदृष्टि होने पर भी जब अवतीर्ण होते हैं तो परित्राण किसका करते हैं? साधु का करते हैं तो वहाँ वह विषम नहीं है। साधुओं का परित्राण करते हैं और दुष्कृतों का विनाश करते हैं। भगवान के जो प्रियजन है वही भगवान के भक्त हैं वही साधु हैं। तो ‘मद्भक्तानां विनोदार्थ करोमि विविधा क्रियाः’ यह पद्मपुराण का वचन है कि हम अपने प्रियजनों का प्रिय कार्य करने के लिये सब लीला करते हैं। भगवान की लीला का कारण है प्रियजनों का प्रिय कार्य। अपने प्यारों को सुख देना। प्यारों में-चाहे कितने भी कोई प्यारें हों। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 12।17
संबंधित लेख
क्रमांक | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज