गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 16‘तवोद्गीतमोहिताः’ उपनिषदों का उपक्रमोपसंहारादि षड्विधलिंगों द्वारा निर्धारित महातात्पर्य परात्पर परब्रह्म में ही है। ‘ततु समन्वयात्’ यह ब्रह्मसूत्र ही वेणुनाद है। इस ब्रह्मसूत्र के द्वारा सम्पूर्ण उपनिषदों का, सम्पूर्ण श्रुतियों का ‘ब्रह्मणैव मा प्रमा ऊहिता यासां’ ब्रह्म में ही यर्थाथ-ज्ञान प्रमा ऊहित हुई आपके उद्गीत से तात्पर्य कि ‘तत्तु समन्वयात्’ आदि सूत्रों के द्वारा सम्पूर्ण उपनिषद का सम्पूर्ण तत् तत् अर्थबोधक श्रुतियों का महातात्पर्य आप में ही बोधित हुआ। ‘पतिसुतान्वयभ्रातृबान्धवानतिविलंध्य तेऽन्त्यच्युतागताः’ हे अच्युत! अपने लौकिक अर्थों का परित्याग कर हम अपने मुख्य अर्थ ब्रह्म-बोधन, अखण्ड सच्चिदानन्दघन परात्पर के बाधन में ही तात्पर्य रखते हुए आपके सन्निधान में आई हैं। ‘कितव योषितः न वयं योषितः किन्तु कितव योषितः, कैतव्येन योषितः भावप्रधानो निर्देशाः’ अर्थात्, वस्तुतः हम स्त्रियाँ नहीं हैं तथापि कैतव से ही स्त्री-रूप धारण किए हुए हैं। गोपंगनाएँ वस्तुतः श्रुतियाँ हैं। भगवान् श्रीकृष्ण भी कैतव से मनुष्य रूप बन हुए हैं- ‘इत्थं सतां ब्रह्मसुखानुभूत्या दास्यं गतानां परदैवतेन। तत्त्वविद् के लिये ब्रह्मसुखानुभूत्या साक्षात् अनन्त सुखरूप, अनन्त आनन्दरूप, अनन्त ब्रह्मरूप तथा भक्तों के लिये साक्षात् परदैवत परब्रह्म ईश्वर मायाश्रित प्राणियों के लिये नररूप में प्रतीत होते हैं। ‘माया मनुष्यं हरिं’-प्रभु, आप ही माया से नररूप में उपस्थित हैं, वैसे ही हम भी कैतव से, छल से ही योषिता हैं ‘एवं भूतान् अस्मान् कः अविद्वान् को वा विद्वान निशि अविद्यालक्षणायां त्यजेत् क्षिपेत्।’ कौन समझदार ज्ञानी पुरुष हम श्रुतियों को अविद्यामय संसार में इन्द्र-वरुण-कुबेरादिक अर्थों में फेंक सकता है? जिस विद्वान ने उपनिषदों का अभिप्राय समझा, सूत्रों का विश्लेषण किया वह हमको संसार में, अविद्या-लक्ष्णा रात्रि में क्योंकर फेंक सकता है? तात्पर्य यह कि वेद-मंत्रों, श्रुतियों को लौकिक अर्थ में कौन विद्वान् लगा सकता है? किसी प्रकार भी हमारी प्रवृत्ति संसार में नहीं हो सकती; हम लोग आपकी अनन्य हैं, सर्वस्व त्यागकर आपके मंगलमय चरणारविन्द की शरण आई हैं अतः आप द्वारा हमारी उपेक्षा उचित नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्री०भा० 10/12/11