गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 16कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म सः। अर्थात जो कर्म में अकर्म तथा अकर्म में कर्म को देखता है वहीं सब मनुष्यों में बुद्धिमान् है, वही सर्व-कर्म-कृत है। ब्रह्म-विद्या को प्राप्त कर ब्रह्म-साक्षात्कार, चेतन्याभिन्न, अखण्ड, परमानन्दघन भगवत-तत्त्व का अपरोक्ष अनुभव कर लेने पर सम्पूर्ण कर्मों का फल स्वतः प्राप्त हो जाता है। जैसे वाणी, कूप, तड़ागादि जितने भर भी जल के प्रयोजन हैं वे सर्वतः सम्प्लुतोदक स्थानीय महासमुद्र में अन्तर्भूत हो जाते हैं, वैसे ही सम्पूर्ण कर्म, सम्पूर्ण उपासनाएँ भगवत्-तत्त्व के अपरोक्ष साक्षात्कार से अन्तर्भूत हो जाते हैं। आप ही सम्पूर्ण कर्मों का फल हैं। एतावता कर्म एवं उपासना के सिद्धान्तों को जानते हुए ही हम ‘गतिविदो वयं पतिसुतान्वयभ्रातृबान्धवानतिविलंग्ध्य’ पति-पुत्र, बन्धु-बान्धव, कुटुम्ब, स्वजन-परिजन सबका उल्लंघन कर, लौकिक मर्यादाओं की अपेक्षा न कर आपकी शरण आई हैं। ‘तावत् कर्माणि कुर्वीत न निर्विद्येत यावता। अर्थात् जब तक पूर्णतः वैराग्य हो जाय तब तक कर्म-काण्ड करते रहना चाहिए। जब तक भगवान् की मंगलमयी कथा-सुधा में अनन्य प्रीति, भक्ति, अनुरक्ति न उत्पन्न हो जाय तब तक कर्म-काण्ड का सांगोपांग निर्वाह करते रहना चाहिए; लेकिन सम्पूर्ण कर्म-काण्ड के परम-फल भगवत्-पादारविन्द में अनुरिक्त संपन्न हो जाने पर, भगवत्-कथा-सुधा में अनन्य प्रीति हो जाने पर, वैराग्य हो जाने पर सम्पूर्ण कर्मों का प्रयोजन सम्पूर्ण हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद् भा० 11/20/9