गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 16‘कोटि बिप्र बध लागंहि जाहू। आएँ सरन तजऊँ नहिं ताहू।।[1] ‘सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते। अर्थात हे सुग्रीव! यदि विभीषण अथवा स्वयं रावण भी मित्रभाव से शरणागत हुआ हो तो उसे भी मै त्याग नहीं सकता; शरणागत प्राणी भले ही सदोष हो तथापि सर्वथा अत्याज्य है; शरणागत का ग्रहण सन्तों द्वारा अगर्हित पथ है। ‘सरनागत कहुँ जे तजहिं, निज अनहित अनुमानि। शरणागत को स्वीकार करना उपकार अथवा बड़प्पन नहीं है; भगवान् राघवेन्द्र स्वयं ही कह रहे हैं कि जो निज लाभ-हानि के विचार से शरणागत का त्याग कर देता है वह पातकी है; ऐसे व्यक्ति का दर्शन भी अनिष्टकारक है। तथापि हर कोई शरण्य नहीं होता; शरण्य की शरणागति सफल नहीं हुई; भगवान् राम समुद्र की शरण गए अतः उनकी शरणागति सफल नहीं हुई; विभीषण सर्व-शरण्य भगवान् राम के शरणागत हुआ, शरण्य को शरण हुआ। ‘शरण्यं शरणं गतः' [5] ‘राघवं शरणं गतः‘ [6] अतः विभीषण का सर्वतोभावेन कल्याण हुआ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मानस 5/43/1
- ↑ मानस 5/38/87
- ↑ बाल्मीकीय रामायण’ युद्ध ० 18/33–34
- ↑ मानस’ 5/43
- ↑ वाल्मीकि रा0 युद्ध0 19/5
- ↑ वही, 17/16