गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 15भगवत्-साक्षात्कार के आभाव में, भगवत्-दर्शन के बिना अन्य सम्पूर्ण दर्शन, अल्प साक्षात्कार अल्प दर्शन हैं। ‘यदल्पं तन्मत्र्यं’[1] जो अल्प है वही मर्त्य है। ‘भूमैव सुखम्’ भूमा ही सुख है। ‘यत्र नान्यत्पश्यति नान्यच्छृणोति नान्यद् विजानाति’[2] ही ‘भूमा’ है। जो एकमात्र भगवत्-विज्ञान है, अन्य दर्शन, अन्य श्रवण, अन्य विज्ञान का सर्वथा अभाव है, वही भूमा है। जहाँ अन्य दर्शन हैं वहाँ अल्पता है; अल्पता में मर्त्यता है, दुःख है। एतावता ‘त्वामपश्यताम्’ जो आपका दर्शन नहीं कर रहे हैं, आपका दर्शन नहीं पा रहे हैं ऐसे भगवत्-तत्त्वशून्य प्राणियों के लिए ‘सर्वदुःखात्मकमेव जगत्’ सम्पूर्ण जगत् दुःखमय है अतएव उनके लिए त्रुटिपरिमित काल भी दुःख-काल होने के कारण दीर्घ हो जाता है; ‘काननं भवानटति’ भगवत्-साक्षात्कार न होने पर जीवात्मा भगवान् के ही रूपान्तर ‘काननं संसृति-काननम्’ संसाररूपी कानन में अटन करता रहता है। ‘यत् संसृतिकाननं अटाति तत्’ भगवत्-साक्षात्कारशून्य चेतन प्राणी दुःखात्मक है, दुःख-स्वरूप है, दुःखमय है। ‘श्रीमुखं कुटिलकुन्तलं चेतनः। श्रियाः धर्मादिसम्पत्तेर्मुखं निस्सरणं यस्सरणं यस्मात् तत् श्रीमुखं’ निस्सरण अर्थ में मुख है; चेतन से सम्पूर्णं संसारी सम्पत्ति का निस्सरण हो जाता है; भगवत्-स्वरूप चिन्तन से उसमें ऐश्वर्यादि गुण प्रकट हो जाते हैं और भगवद्दर्शन, भाव, आराधन के बिना जितनेभर भी चेतन के उत्तमोत्तम गुण हैं, वे सबके सब निस्सृत हो जाते हैं। ‘कुटिलकुन्तलं-कुटिलाः कुन्तलाः विषयाभिमुखा वेगा यस्य’ विषयाभिमुख वेग ही कुन्तल है; ये वेग अत्यन्त कुटिल हैं। तात्पर्य, शब्द-स्पर्शादि विषयों के अभिमुख वेग कुटिल हैं क्योंकि वही संसार में पतन का मूल है। ‘मोक्षमिच्छसि चेत् तात विषयान् विषयत् त्यज’ मोक्ष की इच्छा हो तो विषयों का विषवत् त्याग कर दो। भगवत्-अदर्शन से जीव दुःखमय हो जाता है, उसकी सम्पूर्ण सात्त्विक शक्तियाँ नष्ट हो जाती हैं और विषयाभिमुख उसका वेग वृद्धिंगत होता रहता है। ज्ञान शून्य होने पर ही विषयाभिमुख वेग बढ़ता है; ज्ञानयुक्त होने पर भी प्रारब्धवशात् भोजनाच्छादनादिकों में प्रवृत्ति हो जाय तो ‘जिहतीव’ लज्जा-सी प्रतीत होती है। ‘किमिच्छन् कस्य कामाय शरीरमनु संज्वरेत्’[3] कहाँ विषय है? किसके लिए प्रवृत्ति हो? इन्द्रियाँ कहाँ जा रही हैं? आदि। तत्त्व-विचार ही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं; तत्त्व-विज्ञान-शून्य होने पर बिना लगाम के उच्छृखंल घोड़ों की तरह मन भी अत्यन्त उच्छृखंल बन जाता है। |