गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 13‘सुस्मितं भावयेन्मुखम्’[1] एकमात्र सुस्मितभाव-संयुक्त मुखचन्द्र का ही ध्यान करो। वेणुनाद-पीयूषरूप में आध्यात्मिकता की अभिव्यंजनां में साधन है। भगवान् के मंगलमय श्रीविग्रह में भी क्रमशः साधनरूपता एवं साध्यरूपता भक्तों द्वारा स्वीकृत है। इस पद में प्रयुक्त ‘प्रणत-कामदं, पद्मजार्चितं, धरणिमण्डनं’ आदि सम्पूर्ण विशेषण भगवत्-पादारविन्द की साधनरूपता में ही प्रयुक्त हैं। ‘आधिहन्’ मानसी पीड़ा के हन्ता। भगवत्-पादारविन्द मानसी पीड़ा के भी हर्ता हैं। अपने मन में प्रतिकूल व्यापार का काँटा सदा ही प्राणी के अन्तरात्म में खटकता रहता है, यही मानसी पीड़ा का स्वरूप है। भगवत्-चिन्तन से सम्पूर्ण दुशंचिताओं एवं व्यथादिक से आत्यन्तिक निवृत्ति होती है। प्रायः ही देखा जाता है कि अनेकानेक दुश्चिन्ताओं के विकल प्राणी को निन्द्रा नहीं आती। कवि कहता है- “नींद पुरानी गेहिनी, रात न आयी, हाय। दुश्चिन्ता-ग्रस्त व्यक्ति भी भगवन्नाम-संकीर्तन करते हुए अथवा भगवत्-कथा सुनते हुए झपकियाँ लेने लगता है। शास्त्र-कथन है- “तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः”[2] अनन्त, अखण्ड, स्वप्रकाश ब्रह्म का बोध होते ही उसमें कल्पित माया-मय दृश्य प्रपंच का बाध हो जाता है। फलतः कुछ समय के लिए दुःख-निवृत्ति हो जाती है परन्तु जब तक यह विचार-धारा समर्थ नहीं हो जाती तब तक शोक-मोह की आत्यन्तिक निवृत्ति नहीं हो पाती। एतावता प्रार्थना की जाती है “तेजस्विनावधीतमस्तु, सहवीर्यं करवावहै।” उदाहरणतः जैसे श्मशान की अग्नि और अरणि-मन्थन से प्रकट की गई आधानादिक संस्कार द्वारा संस्कृत अग्नि की चमत्कृति में भेद है, वैसे ही गुरु-भक्तिपूर्वक यम-नियमादिसहित शास्त्रोक्त विधान-संयुक्त, भगवदुपासना-संयुक्त वेदान्त का अध्ययन ही शक्तिशाली तेजस्वी अयातयाम तथा फलपर्यवसायी होता है। |