गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 12व्यास शिष्यों द्वारा भगवान के प्रेममय स्वरूप का ज्ञान प्राप्त कर शुकदेव जी व्यास जी के पास आए और उनसे श्रीमद् भगवत को पढ़ा। भक्त अनुभव करता है कि मेरे प्रभु अलौकिक, अदृश्य, अलक्ष्य अचिन्तय, अखण्ड, अब्यपदेश, परान्तर, परब्रह्म, निरपेक्ष नहीं अपितु मेरी ही तरह हस्तपादादिनान् पुमान् हैं; इतना ही नहीं वे भी हमारी जाति के गोपाल ही हैं; वे भी हमारी ही तरह गोचारण करते हुए गोरज से धूलि-धूसरित हो जाते हैं। अतः गोपाङनाएँ कहती हैं भगवत्-स्वरूप के दर्शन से “दर्शयन् मुहुर्मनसि नः स्मरं वीर यच्छसि।” अर्थात हे तात! यदि मोक्ष ही इच्छा हो तो विषयों का विषवत् त्याग कर दें। यदा-कदा कुछ ऐसे भी दुरदृष्ट होते हैं जिनके कारण सहृदय सत्पुरुष में भी विषयसंग बन जाता है। राम के वन-गमन का प्रसंग उपस्थित होने पर लक्ष्मण अत्यंत खिन्न हो देव से भी युद्ध के लिए तत्पर हो गए; लक्ष्मण को प्रबोध करते हुए भगवान राम कहते हैं ‘यदचिन्त्यं तु तद् दैवम्’ जो अचिन्त्य है वही दैव है। फल-प्राप्ति के अनन्तर ही देव का परिज्ञान होता है। दैव बुद्धि का अगोचर है; विभिन्न दैव, अदृष्ट अपने-अपने फल को देकर स्वभावतः ही नष्ट हो जाते हैं अतः दैव से संग्राम संभव नहीं होता।“ऋषयोऽप्युग्रतपसो दैवेनाभिप्रचोदिताः। अर्थात, उग्रतपा, महान् तप करने वाले ऋषि भी दैव-प्रेरित हो, दैव-पराधीन होकर अपने कठिन यम-नियमादि को त्यागकर काम एवं मन्यु, क्रोध के वशीभूत हो जाते हैं। उदाहरणतः जड़भरत ब्रह्मविद्-वरिष्ठ, परं-तत्त्वविद थे तथापि, प्रारब्धकर्मवशात प्रपंच में आसक्त हो गए। |