गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 11गोपांगनाओं का प्रेम-विहल मन कल्पना करता है कि वृन्दावन धाम के ये असंख्यात गाय-बछड़े चारण-हेतु अवश्य ही इतस्ततः भटकेंगे क्योंकि विवेक शून्य पशु हैं; गो-चारण करते हुए श्यामसुन्दर भी उनके पीछे-पीछे घूमेंगे; उनके निरतिशय कोमल चरणारविन्द निरावरण हैं एतावता; अवश्य ही वृन्दावन धाम के कुश-काल-शिल तृणांकुरादि से उनके चरणारविन्दों में आघात लग जाने की आशंका तो स्वभावतः सदा ही बनी रहती है। श्यामसुन्दर चक्षुस्-महान्, दीर्घ नेत्र, विशाल नेत्र युक्त हैं तथापि भ्रमवशात् किंवा गाय-बछड़ों का अनुसरण करते हुए आवेगवशात् भगवत्-पादारविन्द के कुश-काल-शिल-तृणांकुरादि पर पड़ जाने की सम्भावना तो सतत बनी रहती है। उत्तर देती हुई गोपांगनाएँ कहती हैं ‘रे मन! तू उचित ही तो कहता है परन्तु बता हम क्या करें? ऐसे भीषण, संताप को सहन करने के लिए ही विधाता ने हमको घड़ा है। तब दयार्द्र हो मन कह उठता है, ‘दुःखिन्यः गोपांगनाः यूयमत्र।’ हे दुःखिनी गोपांगनाओं तुम यहाँ ठहरो। मैं तुम्हारे प्राणों को लेकर श्यामसुन्दर, मदन मोहन, श्रीकृष्ण के पास जा रहा हूँ। प्रेम-विहला गोपांगनाएँ अपने गोपाल श्रीकृष्ण के विप्रयोगजन्य से दग्ध हो मृतप्राय हो रही हैं। अथवा, यह भी सिद्धान्त है कि वृन्दादेवी का विकसित हृदय-कमल ही वृन्दावन है; जहाँ-जहाँ भगवत्-पादारविन्द विन्यस्त होते हैं, वहाँ-वहाँ वृन्दावन देवी का हृत्-कमल विशेषतः प्रफुल्लित हो जाता है। जैसे, भगवत्-पादारविन्द विन्यास से गोपांगनाओं का हृदय द्रवीभूत हो जाता है, वैसे ही, भगवत्-पादारविन्द विन्यास से वृन्दावन धाम की भूमि भी द्रवीभूत हो जाती है; पाषाण भी नवनीत तुल्य तथा कुश-काश-शिल-तृणांकुरादि पुष्पकलिकावत् सुकोमल हो जाते हैं अस्तु, भगवत्-पादारविन्द में आघात लग जाने की आशंका ही निराधार है। गोपांगनाएँ व्रजतत्त्व के यथात्म्य से भली-भाँति परिचित हैं तथा प्रेम-विहृला हैं। माधुर्याधिष्ठात्री महाशक्ति के प्रादुर्भाव से ऐश्वर्याधिष्ठात्री शक्ति का तिरोधान हो जाता है, यही प्रीति की महत्ता है। उदाहरणार्थ ‘राम चरित मानस’ के अयोध्याकाण्ड के अन्तर्गत श्रीराम-वनवास के प्रसंग का पाठक आप भी राघवेन्द्र रामभद्र को अखिलेश्वर, अखिल-ब्रह्माण्ड-नायक, सर्वशक्तिमान् प्रभु जानते हुए भी भावावेश के कारण सहज ही दुःख-कातर हो जाता है-किंवा भरत-मिलाप के प्रसंग को पढ़ते हुए गद्गद् हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मानस, अध्योध्या, 261/8