गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 6‘हन’ धातु का एक अर्थ ‘गति’ भी है। अस्तु, गोपांगनाएँ कह रही हैं कि हे सखे! हम व्रजांगनाओं की आर्ति पहुँचाना ही आपके इस अवतार का विशेष प्रयोजन है। अनन्त ब्रह्माण्ड का उत्पादन, पालन एवं संहार तो आपकी ईश्वरीय शक्ति द्वारा होता है।आप तो केवल मात्र ‘व्रजजनान् आर्तीहन्ति गमयति’ व्रजजनों को, अपने भक्तजनों को, हम परम-प्रेयसी व्रजांगनाजनों को अपने विप्रयोगजन्य तीव्र ताप से संतप्त ही करते रहते हैं। आप ‘वीर-योषितां’ हैं। आप उत्कृष्ट वीर हैं। मधु-कैटभ-वध तो आपकी नारायणी शक्ति का ही शौर्य है; इसी तरह, अन्य विभिन्न शत्रुओं को पराजित करने का शौर्य तो आपकी विभिन्न शक्तियों में ही है; आपका यह व्रजेन्द्रनन्दन, गोपकुमार, श्रीकृष्ण-स्वरूप तो केवल-मात्र ‘योषितां वधे वीरः’ योषिताओं के हनन में ही शूरमा है। यही कारण है कि आप अन्तर्धान होकर हम योषिताओं, परम-प्रेयसी व्रजांगनाओं का अपने विप्रयोगजन्य तीव्रताप से हनन कर रहे हैं। मानिनी कहती हैं, हे सखे! आपक स्मित, ईषत् हास्य भी व्रजजनों के स्मय का हनने करने वाला है। यह स्मय, मान ही व्रजजनों का सार-सर्वस्व है; ‘मान’ ही मानधनों का जीवन है। ‘अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्। मानधनों का मान-हरण कर लेना ही उनका हनन है। किसी के जीवन-सर्वस्व का हनन अत्यन्त दोषपूर्ण कृत्य है। हे सखे! ‘भवत् किंकरीः नो भज किन्तु अन्यानेव भज’ आप अपनी किंकरीजनों को न भजें, अन्यजनों को ही भजें। हम तो आपकी दासी हैं, किंकरी हैं, अपने अन्तरात्मा, अन्तःकरण, प्राण, अपना सर्वस्व आपके चरणों में समर्पित कर आपको ही सदा भजती रहती हैं, आपके विप्रयोगजन्य तीव्रताप से मृत्यु को प्राप्त हो रही हैं; अब आप हमारा भजन न करें, अब आप हमारी ओर न आयें। ‘अन्यानेव भज’ अन्य जनों को ही भजें। ‘जलरुहाननमपि न दर्शय’ अपने मनोहर मुखारविन्द का दर्शन भी न दें। आपकी विप्रयोगजन्य असह्य वेदना से व्याकुल हो हमने तो मरना ही ठान लिया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 2। 34