गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 5विरचिताभयं वृष्णिधुर्य ते अर्थात्, हे यदुवंशशिरोमणे! जनम-मरण परम्परा अवच्छेदरूप संसृति-चक्र से भयभीत हो जो जन आपके चरणारविन्दों की शरण में आते हैं उनको आपके हस्तारविन्द अभय प्रदान करते हैं। हे कान्त! सम्पूर्ण अभिलाषाओं की पूर्ति एवं वासनाओं का खण्डन तथा लक्ष्मी का पाणिग्रहण करने वाले कर-सरोरुहों को आप हमारे सिर पर विन्यस्त करें। ‘वरद निघ्नतो नेह किं वधः’ ‘विखनसार्थितो विश्वगुप्तये’ जैसी कठोर उक्तियों की तुलना में ‘न खलु गोपिकानन्दनो भवान् अखिलदेहिनामन्तरात्मदृक्’ जैसी उक्ति मधुर है। गोपांगनाएँ अनुभव करती हैं कि उनके इस विनम्र भाव से प्रसन्न होकर भगवान् श्रीकृष्ण उनसे कह रहे हैं, गोपांगनाओं! हम तुम पर प्रसन्न हैं। कहो, हम तुम्हारा कौन प्रिय कार्य करें?’ वे उत्तर देती हैं ‘हे कान्त! ‘नः शिरसि श्रीकरग्रहं करसरोरुहं कामदं धेहि।’ अपने सर्वकामदायक हस्तारविन्द को हमारे सिर पर धारण करें। हम आपके विप्रयोगजन्य तीव्रताप से संतप्त हैं। आपके कर-सरोरुह शीतल एवं परमाह्लादक हैं। प्राणी के सिर पर भगवद् हस्तारविन्द का विन्यास आधिदैविक, आधिभौतिक एवं आध्यात्मिक सम्पूर्ण पाप-ताप का समूल उन्मूलन करने वाला है। अखिलेश्वर प्रभु के दिव्य हस्तारविन्द की आतपत्र-छाया से प्राणी के सम्पूर्ण दुःखों का अन्त होकर उसे अभय की प्राप्ति होती है। आपके हस्तारविन्द ‘कामद’ हैं; ‘कामं द्यति खण्डयति इति कामदं’ कामवासना-जाल को छिन्न-भिन्न करने वाले हैं। वस्तुतः परात्पर, पूर्णतम, परब्रह्म भगवान् के मंगलमय हस्तारविन्द की आतपत्र-छाया ही सर्व प्रकार के काम-जाल का समूल उन्मूलन करने वाली है। |