गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 2अर्थात जहाँ-जहाँ राघवेन्द्र रामचन्द्र के मंगलमय पवित्र चरित्रामृत का प्रवाह प्रवाहित होगा, वहाँ-वहाँ हनुमान्जी सर झुकाए, आँखों में आँसू भरे अवश्य ही पधारेंगे; यही उनका स्वभाव है। ज्ञानी शिरोमणि सनकादिकों को भी एक व्यसन है। मूल प्रसंगानुसार गोपांगनाएँ कह रहीहैं, हे प्रभो! आप सुरतनाथ हैं तथापि हमारा तो वध ही कर रहे हैं। कहा जा चुका है कि एकाकी होने के कारण हिरण्यगर्भ को अरमण हुआ अतः हिरण्यगर्भ ने इच्छा की ‘जाया मे स्यादथ प्रजायेयाथ वित्तं मे स्यादथ कर्म कुर्वीय।’[2] भगवदिच्छा ही आदिकाम है। सृष्टि के आरम्भ में जैसा भाव रहता है, उत्तरकालीन प्रपन्च भी उसी का अनुसरण करता है। ‘रसो वै सः। रसं ह्येवायं लब्ध्वाऽऽनन्दी भवति।’[3] परात्पर परब्रह्म प्रभु ही रसस्वरूप हैं; भगवद्-निष्ठ रस ही लोक में विभिन्न स्वरूपों में प्रसृत होता है। अस्तु, तृतीय पुरुषार्थ काम के अप्रकट रहने पर आश्रय के अभाव में रसाभिव्यक्ति असम्भव हो जाती है। जैसे, अश्व-निर्माण में समर्थ होने पर भी जब तक अश्व निर्माण नहीं कर लेता तब तक अश्वपति नहीं कहलाता वैसे ही, हे प्रभो! आप ही शब्द, स्पर्श,रूप, रस, गन्धात्मक सम्पूर्ण सम्भोग-सुख के प्रवर्तक एवं उद्गम-स्थल हैं, सुरतनाथ हैं अतः रस-विशिष्ट का प्रादुर्भाव अनिवार्य है। रसशास्त्र के अनुसार भी सम्पूर्ण रसाभिव्यक्ति भगवत-स्वरूप रस का ही परिणाम है। संसार के सम्पूर्ण समीचीन एवं असमीचीन पदार्थ सच्चिदानन्दघन भगवान के सद्-स्वरूप का ही परिणाम है। जैसे सामान्य मृत्तिका ही घटविशिष्ट मृत्ति का रूप में अथवा सामान्य सुवर्ण ही कुण्डलादि विशिष्टि सवुर्णरूप में परिणत होता है, वैसे ही शुभाशुभ-विनिर्मुक्त अखण्ड सत्ता ही शुभाशुभ पदार्थ विशिष्ट रूप से प्रकट होती है। वस्तुतः शुभाशुभ विशेषण-विनिमुक्त अखण्ड सत्ता ही परब्रह्म है। उसी प्रकार चित् भी भगवत-स्वरूप ही है। सत् एवं चित् में अभेद है; जिसकी सत्ता होगी उसका भान भी अवश्य ही होगा; जिसका भान होगा उसकी सत्ता भी अवश्य ही होगी। |