उत्पन्न दोनों से इन्हीं से जीव हैं जग के सभी।
मैं मूल सब संसार का हूँ, और मैं ही अन्त भी॥6॥
मुझसे परे कुछ भी नहीं संसार का विस्तार है।
जिस भाँति माला में मणि, मुझमें गुथा संसार है॥7॥
आकाश में ध्वनि, नीर में रस, वेद में ओंकार हूँ।
पौरुष पुरुष में, चाँद सूरज में प्रभामय सार हूँ॥8॥
शुभ गन्ध वसुधा में सदा, मैं प्राणियों में प्राण हूँ।
मैं अग्नि में हूँ तेज, तपियों में तपस्या ज्ञान हूँ॥9॥
हे पार्थ! जीवों का सनातन बीज हूँ, आधार हूँ।
तेजस्वियों में तेज, बुध में बुद्धि का भण्डार हूँ॥10॥