निष्काम-कर्म-विहीन हो, पाना कठिन संन्यास है।
मुनि कर्म-योगी शीघ्र करता ब्रह्म में ही वास है॥6॥
जो योग युत है, शुद्ध मन, निज आत्मयुत देखे सभी।
वह आत्म-इन्द्रिय जीत जन, नहिं लिप्त करके कर्म भी॥7॥
तत्त्वज्ञ समझे युक्त मैं करता न कुछ खाता हुआ।
पाता, निरखता, सूँघता, सुनता हुआ जाता हुआ॥8॥
छूते व सोते साँस लेते, छोड़ते या बोलते।
वर्ते विषय में इन्द्रियाँ, दृग बन्द करते खोलते॥9॥
आसक्ति तज जो ब्रह्म-अर्पण, कर्म करता आप है।
जैसे कमल को जल नहीं लगता उसे यों पाप है॥10॥