हरिगीता अध्याय 5:6-10

श्रीहरिगीता -दीनानाथ भार्गव 'दिनेश'

अध्याय 5 पद 6-10

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निष्काम-कर्म-विहीन हो, पाना कठिन संन्यास है।
मुनि कर्म-योगी शीघ्र करता ब्रह्म में ही वास है॥6॥

जो योग युत है, शुद्ध मन, निज आत्मयुत देखे सभी।
वह आत्म-इन्द्रिय जीत जन, नहिं लिप्त करके कर्म भी॥7॥

तत्त्वज्ञ समझे युक्त मैं करता न कुछ खाता हुआ।
पाता, निरखता, सूँघता, सुनता हुआ जाता हुआ॥8॥

छूते व सोते साँस लेते, छोड़ते या बोलते।
वर्ते विषय में इन्द्रियाँ, दृग बन्द करते खोलते॥9॥

आसक्ति तज जो ब्रह्म-अर्पण, कर्म करता आप है।
जैसे कमल को जल नहीं लगता उसे यों पाप है॥10॥


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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