हरिगीता अध्याय 2:66-72

श्रीहरिगीता -दीनानाथ भार्गव 'दिनेश'

अध्याय 2 पद 66-72

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रहकर अयुक्त न बुद्धि, उत्तम भावना होती कहीं।
बिन भावना नहि शांति और अशांति में सुख है नहीं॥66॥

सब विषय विचरित इन्द्रियों में, साथ मन जिसके रहे।
वह बुद्धि हर लेती, पवन से नाव ज्यों जल में बहे॥67॥

चहुँ ओर से इन्द्रिय-विषय से, इन्द्रियाँ जब दूर ही।
रहती हटीं जिसकी सदा, दृढ़-प्रज्ञ होता है वही॥68॥

सब की निशा तब जागता, योगी पुरुष हे तात! है।
जिसमें सभी जन जागते, ज्ञानी पुरुष की रात है॥69॥

सब ओर से परिपूर्ण जलनिधि में सलिल जैसे सदा।
आकर समाता, किन्तु अविचल सिन्धु रहता सर्वदा॥
इस भाँति ही जिसमें विषय जाकर समा जाते सभी।
वह शांति पाता है, न पाता काम-कामी जन कभी॥70॥

सब त्याग इच्छा कामना, जो जन विचरता नित्य ही।
मद और ममताहीन होकर, शांति पाता है वही॥71॥

यह पार्थ! ब्राह्मी-स्थिति, जिसे पा नर न मोहित हो कभी।
निर्वाण पद हो प्राप्त इसमें, ठौर अन्तिम काल भी॥72॥


दूसरा अध्याय समाप्त हुआ॥2॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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