सब ओर करके प्राप्त जल, जितना प्रयोजन कूप का।
उतना प्रयोजन वेद से, विद्वान ब्राह्मण का सदा॥46॥
अधिकार केवल कर्म करने का, नहीं फल में कभी।
होना न तू फल-हेतु भी, मत छोड़ देना कर्म भी॥47॥
आसक्ति सब तज, सिद्धि और असिद्धि मान समान ही।
योगस्थ होकर कर्म कर, है योग समता-ज्ञान ही॥48॥
इस बुद्धियोग महान से सब कर्म अतिशय हीन हैं।
इस बुद्धि की अर्जुन! शरण लो, चाहते फल दीन हैं॥49॥
जो बुद्धि-युत है, पाप-पुण्यों में न पड़ता है कभी।
बन योग-युत, है योग ही यह कर्म में कौशल सभी ॥50॥