हरिगीता अध्याय 17:16-20

श्रीहरिगीता -दीनानाथ भार्गव 'दिनेश'

अध्याय 17 पद 16-20

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सौम्यत्व, मौन, प्रसाद मन का, शुद्ध भाव सदैव ही॥
करना मनोनिग्रह सदा मन की तपस्या है यही॥16॥

श्रद्धा सहित हो योगयुत फल वासनाएँ तज सभी॥
करते पुरुष, तप ये त्रिविध, सात्त्विक तपस्या है तभी॥17॥

सत्कार पूजा मान के हित दम्भ से जो हो रहा॥
वह तप अनिश्चित और नश्वर, राजसी जाता कहा॥18॥

जो मूढ़-हठ से आप ही को कष्ट देकर हो रहा॥
अथवा किया पर-नाश-हित, तप तामसी उसको कहा॥19॥

देना समझ कर अनुपकारी को दिया जो दान है॥
वह दान सात्त्विक देश काल सुपात्र का जब ध्यान है॥20॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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