विषय सूची 1 श्रीहरिगीता -दीनानाथ भार्गव 'दिनेश' 2 अध्याय 17 पद 16-20 3 टीका टिप्पणी और संदर्भ 4 संबंधित लेख श्रीहरिगीता -दीनानाथ भार्गव 'दिनेश' अध्याय 17 पद 16-20 सौम्यत्व, मौन, प्रसाद मन का, शुद्ध भाव सदैव ही॥ करना मनोनिग्रह सदा मन की तपस्या है यही॥16॥ श्रद्धा सहित हो योगयुत फल वासनाएँ तज सभी॥ करते पुरुष, तप ये त्रिविध, सात्त्विक तपस्या है तभी॥17॥ सत्कार पूजा मान के हित दम्भ से जो हो रहा॥ वह तप अनिश्चित और नश्वर, राजसी जाता कहा॥18॥ जो मूढ़-हठ से आप ही को कष्ट देकर हो रहा॥ अथवा किया पर-नाश-हित, तप तामसी उसको कहा॥19॥ देना समझ कर अनुपकारी को दिया जो दान है॥ वह दान सात्त्विक देश काल सुपात्र का जब ध्यान है॥20॥ टीका टिप्पणी और संदर्भ संबंधित लेख देखें • वार्ता • बदलेंहरिगीता -दीनानाथ भार्गव 'दिनेश' पहला अध्याय (1) · द्वितीय अध्याय (2) · तृतीय अध्याय (3) · चतुर्थ अध्याय (4) · पंचम अध्याय (5) · षष्टम अध्याय (6) · सातवाँ अध्याय (7) · आठवाँ अध्याय (8) · नौवाँ अध्याय (9) · दसवाँ अध्याय (10) · ग्यारहवाँ अध्याय (11) · बारहवाँ अध्याय (12) · तेरहवाँ अध्याय (13) · चौदहवाँ अध्याय (14) · पंद्रहवाँ अध्याय (15) · सोलहवाँ अध्याय (16) · सत्रहवाँ अध्याय (17) · अठारहवाँ अध्याय (18) वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ अं क ख ग घ ङ च छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण त थ द ध न प फ ब भ म य र ल व श ष स ह क्ष त्र ज्ञ ऋ ॠ ऑ श्र अः