हरिगीता अध्याय 11:46-50

श्रीहरिगीता -दीनानाथ भार्गव 'दिनेश'

अध्याय 11 पद 46-50

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मैं चाहता हूँ देखना, तुमको मुकुट धारण किये।
हे महाबाहो! शुभ करों में चक्र और गदा लिये॥
हे विश्वमूर्ते! फिर मुझे वह सौम्य दर्शन दीजिये॥
वह ही चतुर्भुज रूप हे देवेश! अपना कीजिये॥46॥

श्रीभगवान् ने कहा-
हे पार्थ! परम प्रसन्न हो तुझ पर अनुग्रह-भाव से।
मैने दिखाया विश्वरूप महान योग-प्रभाव से॥
यह परम तेजोमय विराट् अनंत आदि अनूप है॥
तेरे सिवा देखा किसी ने भी नहीं यह रूप है॥47॥

हे कुरुप्रवीर! न वेद से, स्वाध्याय, यज्ञ न दान से।
दिखता नहीं मैं उग्र तप या क्रिया कर्म-विधान से॥
मेरा विराट् स्वरूप इस नर-लोक में अर्जुन! कहीं॥
अतिरिक्त तेरे और कोई देख सकता है नहीं॥48॥

यह घोर-रूप निहार कर मत मूढ़ और अधीर हो।
फिर रूप पहला देख, भय तज तुष्ट मन में वीर हो॥49॥

संजय ने कहा-
यों कह दिखाया रूप अपना सौम्य तन फिर धर लिया।
भगवान् ने भयभीत व्याकुल पार्थ को धीरज दिया॥50॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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