श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
पंचम अध्यायकिं च अतो यदि आत्मवितकर्तृकयोः सन्न्यासकर्मयोगयोः निःश्रेयसकरत्वं तयोः तु कर्मसन्न्यासात् कर्मयोगस्य विशिष्टत्वम् उच्यते यदि वा अनात्मवित्कर्तृकयोः सन्न्यासकर्मयोगयोः तद् उभयम् उच्यते इति। अत्र उच्यते, आत्मवित्कर्तृकयोः सन्न्यासकर्मयोगयोः असम्भवात् तयोः निः श्रेयसकरत्ववचनं तदीयात् च कर्मसन्न्यासात् कर्मयोगस्य विशिष्टत्वाभिधानम् इति एतद् उभयम् अनुपपन्नम्। यदि अनात्मविदः कर्मसन्न्यासः तत्प्रतिकूलः च कर्मानुष्ठानलक्षणः कर्मयोगः सम्भवेतां तदा तयोः निःश्रेयसकरत्वोक्तिः कर्मयोगस्य च कर्मसन्न्यासाद् विशिष्टत्वाभिधानम् इति एतद् उभयम् उपपद्यते। आत्मविदः तु सन्न्यासकर्मयोगयोः असम्भवात् तयोः निःश्रेयसकरत्वाभिधानं कर्मसन्न्यासात् च कर्मयोगो विशिष्यते इति च अनुपपन्नम्। पू.- इससे क्या मतलब? चाहे आत्मवेत्ता द्वारा किये हुए संन्यास और कर्मयोग की कल्याणकारकता और उन दोनों में संन्यास की अपेक्षा कर्मयोग की श्रेष्ठता कही गयी हो अथवा चाहे अज्ञानी द्वारा किए हुए संन्यास और कर्मयोग के विषय में ही वे दोनों बातें कही गयी हों। उ.- आत्मज्ञानीपूर्वक कर्मसंन्यास और कर्मयोग का होना असम्भव है, इस कारण उन दोनों को कल्याणकारक कहना और उसके लिए किए हुए कर्मसंन्यास की अपेक्षा कर्मयोग को श्रेष्ठ बतलाना, ये दोनों बातें ही नहीं बन सकतीं। यदि कर्मसंन्यास और उसके विरुद्ध कर्मानुष्ठानरूप कर्मयोग इन दोनों को अज्ञानीकर्तृक मान लिया जाए तो फिर इन दोनों साधकों को कल्याणकारक बताना और कर्मसंन्यास की अपेक्षा कर्मयोग को श्रेष्ठ बतलाना ये दोनों बातें ही बन सकती हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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