श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य पृ. 210

श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य

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चतुर्थो अध्याय

अपि चेद् असि पापेभ्यः पापकृदभ्यः सर्वेभ्य अतिशयेन पापकृत् पापकृत्तमः, सर्वं ज्ञानप्लवेन एव ज्ञानम् एव प्लवं कृत्वा वृजिनं वृजिनार्णवं पापं सन्तरिष्यसि, धर्मः अपि इह मुमुक्षोः पापम् उच्यते।।36।।

ज्ञानं कतं नाशयति पापम् इति सदृष्टान्तम् उच्यते।

यदि तू पाप करने वाले सब पापियों से अधिक पाप करने वाला- अति पापी भी है तो भी ज्ञानरूप नौका द्वारा अर्थात् ज्ञान को ही नौका बनाकर समस्त पापरूप समुद्र से अच्छी तरह पार उतर जाएगा। यहाँ मुमुक्षु के लिए धर्म भी पाप ही कहा जाता है।।36।।

ज्ञान पाप को किस प्रकार नष्ट कर देता है सो दृष्टान्त सहित कहते हैं-

यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन ।
ज्ञानाग्नि: सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ॥37॥

यथा एधांसि काष्ठानि समिद्धः सम्यग् इद्धो दीप्तः अग्निः भस्माद् भस्मीभावं कुरुते अर्जुन, ज्ञानम् एव अग्निः ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरुते तथा निर्बीजीकरोति इत्यर्थः।

न हि साक्षाद् एव ज्ञानाग्निः कर्माणि इन्धनवद् भस्मीकर्तुं शक्नोति, तस्मात् सम्यग्दर्शनं सर्वकर्मणां निर्बीजत्वे कारणम् इति अभिप्रायः।

हे अर्जुन! जैसे अच्छी प्रकार से प्रदीप्त यानी प्रज्वलित हुआ अग्नि ईंधन को अर्थात् काष्ठ के समूह को भस्मरूप कर देता है, वैसे ही ज्ञानरूप अग्नि सब कर्मों को भस्मरूप कर देता है, अर्थात् निर्बीज कर देता है।

क्योंकि ईंधन की भाँति ज्ञानरूप अग्नि कर्मों को साक्षात् भस्मरूप नहीं कर सकता; इसलिए इसका यही अभिप्राय है कि यथार्थ ज्ञान सब कर्मों को निर्बीज करने का हेतु है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
क्रम संख्या अध्याय पृष्ठ संख्या
1. प्रथम अध्याय 16
2. द्वितीय अध्याय 26
3. तृतीय अध्याय 114
4. चतुर्थ अध्याय 162
5. पंचम अध्याय 216
6. षष्ठम अध्याय 254
7. सप्तम अध्याय 297
8. अष्टम अध्याय 318
9. नवम अध्याय 339
10. दशम अध्याय 364
11. एकादश अध्याय 387
12. द्वादश अध्याय 420
13. त्रयोदश अध्याय 437
14. चतुर्दश अध्याय 516
15. पंचदश अध्याय 536
16. षोडश अध्याय 557
17. सप्तदश अध्याय 574
18. अष्टादश अध्याय 591
अंतिम पृष्ठ 699

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