श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य पृ. 209

श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य

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चतुर्थो अध्याय

तथा च सति इदम् अपि समर्थं वचनम्-

ऐसा होने पर यह कहना भी ठीक है-

यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव ।
येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि ॥35॥

यद् ज्ञात्वा यद् ज्ञानं तैः उपदिष्टम् अधिगम्य प्राप्य पुनः भूयो मोहम् एवं यथा इदानीं मोहं गतः असि पुनः एवं न यास्यसि हे पाण्डव।

किं च येन ज्ञानेन भूतानि अशेषेण ब्रह्मादीनि स्तम्बपर्यन्तानि द्रक्ष्यसि साक्षाद् आत्मनि प्रत्यगात्मनि मत्संस्थानि इमानि भूतानि इति, अथो अपि मयि वासुदेवे परमेश्वरे च इमानि इति, क्षेत्रज्ञेश्वरैकत्वं सर्वोपनिषत्प्रसिद्धं द्रक्ष्यसि इत्यर्थः।।35।। किं च एतस्य ज्ञानस्य माहात्म्यम्-

हे पाण्डव! उनके द्वारा बतलाये हुए जिस ज्ञान को पाकर फिर तू इस प्रकार मोह को प्राप्त नहीं होगा, जैसे कि अब हो रहा है।

तथा जिस ज्ञान के द्वारा तू सम्पूर्णता से सब भूतों को अर्थात् ब्रह्मा से लेकर स्तम्बपर्यन्त समस्त प्राणियों को ‘यह सब भूत मुझमें स्थित है’ इस प्रकार साक्षात् अपने अन्तरात्मा में ही देखेगा और मुझ वासुदेव परमेश्वर में भी इन सब भूतों को देखेगा। अर्थात् सभी उपनिषदों में जो जीवात्मा और ईश्वर की एकता प्रसिद्ध है उसको प्रत्यक्ष अनभव करेगा।।35।।

इस ज्ञान का माहात्म क्या है (सो सुन)-

अपि चेदसि पापेभ्य: सर्वेभ्य: पापकृत्तम: ।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यासि ॥36॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
क्रम संख्या अध्याय पृष्ठ संख्या
1. प्रथम अध्याय 16
2. द्वितीय अध्याय 26
3. तृतीय अध्याय 114
4. चतुर्थ अध्याय 162
5. पंचम अध्याय 216
6. षष्ठम अध्याय 254
7. सप्तम अध्याय 297
8. अष्टम अध्याय 318
9. नवम अध्याय 339
10. दशम अध्याय 364
11. एकादश अध्याय 387
12. द्वादश अध्याय 420
13. त्रयोदश अध्याय 437
14. चतुर्दश अध्याय 516
15. पंचदश अध्याय 536
16. षोडश अध्याय 557
17. सप्तदश अध्याय 574
18. अष्टादश अध्याय 591
अंतिम पृष्ठ 699

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