श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
चतुर्थो अध्यायतत्र अधुना सम्यग्दर्शनस्य यज्ञत्वं सम्पाद्य तत्स्तुत्यर्थम् अन्ये अपि यज्ञा उपक्षिप्यन्ते दैवम् एव इत्यादिना- उपर्युक्त श्लोक में यथार्थ ज्ञान को यज्ञरूप से संपादन करके अब उसकी स्तुति करने के लिए ‘दैवम् एव’ इत्यादि श्लोकों से दूसरे दूसरे यज्ञों का भी उल्लेख किया जाता है। दैवमेवापरे यज्ञं योगिन: पर्युपासते । दैवम् एव देवा इज्यन्ते येन यज्ञेन असौ दैवो यज्ञः तम् एव अपरे यज्ञं योगिनः कर्मिणः पर्युपासते कुर्वन्ति इत्यर्थः। ब्रह्माग्नौ ‘सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म’ [1]‘विज्ञानमानन्दं ब्रह्म’ [2] ‘यत्साक्षादपरोक्षाद् ब्रह्म य आत्मा सर्वान्तरः’ [3]इत्यादि वचनोक्तम् अशनायादिसर्वसंसारधर्मवर्जितम्, नेति नेति इति निरस्ताशेषविशेषं ब्रह्मशब्देन उच्यते। ब्रह्म च तद् अग्निः च स होमाधिकरणत्व विवक्षया ब्रह्माग्निः तस्मिन् ब्रह्माग्नौ अपरे अन्ये ब्रह्मविदः, यज्ञं यज्ञशब्दवाच्य आत्मा आत्मनामसु यज्ञशब्दस्य पाठात् तम् आत्मानं यज्ञं परमार्थतः परम् एव ब्रह्म सन्तं बुद्ध्याद्युपाधिसंयुक्तं अध्यस्तसर्वोपाधिधर्मकम् आहुतिरूपं यज्ञेन एव आत्मना एव उक्तलक्षणेन उपजुह्वति पक्षिपन्ति। जिस यज्ञ के द्वारा देवों का पूजन किया जाता है वह देवसंबंधी यज्ञ है, अन्य (कितने ही) योगी अर्थात् कर्म करने वाले लोग उस दैव यज्ञ का ही अनुष्ठान किया करते हैं। अन्य (ब्रह्मवेत्ता पुरुष) ब्रह्माग्नि में (हवन करते हैं) अर्थात् ‘ब्रह्म सत्य ज्ञान अनन्त स्वरूप है’ ‘विज्ञान और आनन्द ही ब्रह्म है’ ‘जो साक्षात् अपरोक्ष (प्रत्यक्ष) है वह ब्रह्म है’ ‘जो सर्वान्तर आत्मा है वह ब्रह्म है’ इत्यादि वचनों से जिसका वर्णन किया गया है, जो भूख प्यास आदि समस्त सांसारिक धर्मों से रहित है, जो ‘ऐसा नहीं’ ‘सा नहीं’ इस प्रकार वेद वाक्यों द्वारा सब विशेषणों से परे बतलाया गया है, वह ब्रह्म शब्द से कहा जाता है। हवन का अधिकरण बतलाने के लिए उस ब्रह्म को ही यहाँ अग्नि कह दिया है। उस ब्रह्मरूप अग्नि में कितने ही ब्रह्मवेत्ता-ज्ञानी यज्ञ द्वारा यज्ञ को हवन करते हैं। आत्मा के नामों में यज्ञ शब्द का पाठ होने से आत्मा का नाम यज्ञ है जो कि वास्तव में परब्रह्म ही है, परंतु बुद्धि आदि उपाधियों से युक्त हुआ उपाधियों के धर्मों को अपने में मान रहा है। उस आहुति रूप आत्मा को उपर्युक्त आत्मा द्वारा ही हवन करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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