श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य पृ. 189

श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य

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चतुर्थो अध्याय

किं च शारीरं केवलं कर्म इत्यत्र किं शरीरनिर्वर्त्यं शारीरं कर्म अभिप्रेतम् आहोस्वित् शरीरस्थितिमात्रप्रयोजनं शारीरं कर्म इति।

यहाँ ‘शरीरं केवलं कर्म’ इस पद में शरीर द्वारा होने वाले कर्म शारीरिक कर्म माने गये हैं, या शरीर निर्वाह मात्र के लिए किए जाने वाले कर्म शारीरिक कर्म माने गये हैं?

किं च अतो यदि शरीरनिर्वर्त्यं शारीरं कर्म यदि वा शरीरस्थितिमात्रप्रयोजनं शारीरम् इति, उच्यते-

यदा शरीरनिर्वर्त्यं कर्म शारीरम् अभिप्रेतं स्यात् तदा दृष्टादृष्टप्रयोजनं कर्म प्रतिषिद्धम् अपि शरीरेण कुर्वन् न आप्नोति किल्बिषम् इति ब्रुवतो विरुद्धाभिधानं प्रसज्येत। शास्त्रीयं च कर्म दृष्टादृष्टप्रयोजनं शरीरेण कुर्वन् न आप्नोति किल्बिषम् इति अपि ब्रुवतः अप्राप्तप्रतिषेधप्रसंगः।

शरीरं कर्म कुर्वन् इति विशेषणात् केवलशब्दप्रयोगात् च वाङ्मनसनिर्वर्त्यं कर्म विधिप्रतिषेधविषयं धर्माधर्मशब्दवाच्यं कुर्वन् प्राप्नोति किल्बिषम् इति उक्तं स्यात्।

तत्र अपि वाङ्मनसाभ्यां विहितानुष्ठानपक्षे किल्बिषप्राप्तिवचनं विरुद्धम् आपद्येत। प्रतिषिद्धिसेवापक्षे अपि भूतार्थानुवादमात्रम् अनर्थकं स्यात्।

चाहे शरीर द्वारा होने वाले कर्म शारीरिक कर्म माने जाएँ या शरीर निर्वाह मात्र के लिए किए जाने वाले कर्म ‘शारीरिक कर्म’ माने जायँ, इस विवेचन से क्या प्रयोजन है? इस पर कहते हैं-

जो शरीर द्वारा होने वाले कर्मों का नाम शारीरिक कर्म मान लिया जाय तो इस लोक में या परलोक में फल देने वाले निषिद्ध कर्मों को भी शरीर द्वारा करता हुआ मनुष्य पाप को प्राप्त नहीं होता, ऐसा कहने से भगवान् के कथन में विरुद्ध विधान का दोष आता है। और इस लोक या परलोक में फल देने वाले, शास्त्रविहित कर्मों को शरीर द्वारा करता हुआ मनुष्य पाप को प्राप्त नहीं होता, ऐसा कहने से भी बिना प्राप्त हुए दोष के प्रतिषेध करने का प्रसंग आ जाता है।

तथा ‘शारीरिक कर्म करता हुआ’ इस विशेषण से और ‘केवल’ शब्द के प्रयोग से (उपर्युक्त मान्यता के अनुसार) भगवान् का यह कहना हो जाता है कि (शरीर के सिवा) मन-वाणी द्वारा किये जाने वाले विहित और प्रतिषिद्ध कर्मों को, जो कि धर्म और अधर्म नाम से कहे जाते हैं, करता हुआ मनुष्य पाप को प्राप्त होता है।

उसमें भी ‘मन-वाणी द्वारा विहित कर्मों को करता हुआ पाप को प्राप्त होता है,’ यह कहना तो विरुद्ध विधान होगा, और ‘निषिद्ध कर्मों को करता हुआ पाप को प्राप्त होता है,’ यह कहना अनुवाद मात्र होने से व्यर्थ होगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
क्रम संख्या अध्याय पृष्ठ संख्या
1. प्रथम अध्याय 16
2. द्वितीय अध्याय 26
3. तृतीय अध्याय 114
4. चतुर्थ अध्याय 162
5. पंचम अध्याय 216
6. षष्ठम अध्याय 254
7. सप्तम अध्याय 297
8. अष्टम अध्याय 318
9. नवम अध्याय 339
10. दशम अध्याय 364
11. एकादश अध्याय 387
12. द्वादश अध्याय 420
13. त्रयोदश अध्याय 437
14. चतुर्दश अध्याय 516
15. पंचदश अध्याय 536
16. षोडश अध्याय 557
17. सप्तदश अध्याय 574
18. अष्टादश अध्याय 591
अंतिम पृष्ठ 699

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