श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य पृ. 183

श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य

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चतुर्थो अध्याय

ननु कर्मणि यद् अकर्मदर्शनम् अकर्मणि वा कर्मदर्शनं न तद् मिथ्याज्ञानं किं तर्हि गौणं फलभावाभावनिमित्तम्।

न, कर्माकर्मविज्ञानाद् अपि गौणात् फलस्य अश्रवणात्। न अपि श्रुतहान्यश्रुतपरिकल्पनया कश्चिद विशेषो लभ्यते।

पू.- यहाँ जो कर्म में अकर्म देखना और अकर्म में कर्म देखना (उन टीकाकारों ने) बतलाया है, वह मिथ्याज्ञान नहीं है किंतु फल के होने और न होने के निमित्त से गौणरूप से देखना है।

उ.- यह कहना भी ठीक नहीं; क्योंकि गौणरूप से कर्म को अकर्म और अकर्म को कर्म जान लेने से भी कोई लाभ नहीं सुना गया। इसके सिवा श्रुतिसिद्ध बात को छोड़कर श्रुति विरुद्ध बात की कल्पना करने में कोई विशेषता भी नहीं दिखलायी देती।

स्वशब्देन अपि शक्यं वक्तुं नित्यकर्मणां फलं न अस्ति अकरणात् च तेषां नरकपातः स्याद् इति। तत्र व्याजेन परव्यामोहरूपेण कर्मणि अकर्म यः पश्येद् इत्यादिना किम्।

तत्र एवं व्याचक्षाणेन भगवता उक्तं वाक्यं लोकव्यामोहार्थम् इति व्यक्तं कल्पितं स्यात्।

न च एतत् छद्यरूपेण वाक्येन रक्षणीयं वस्तु, न अपि शब्दान्तरेण पुनः पुनः उच्यमानं सुबोध स्याद् इत्येवं वक्तुं युक्तम्।

(भगवान् को यदि यही अभीष्ट होता तो वे) उसी प्रकार के शब्दों से भी स्पष्ट कह सकते थे कि ‘नित्य- कर्मों का कोई फल नहीं है और उनके न करने से नरक प्राप्ति होती है।’ फिर इस प्रकार ‘कर्म में जो अकर्म देखता है’ इत्यादि दूसरों को मोहित करने वाले मायायुक्त वचन कहने से क्या प्रयोजन था।

इस प्रकार उपर्युक्त अर्थ करने वालों का तो स्पष्ट ही यह मानना हुआ कि ‘भगवान् द्वारा कहे हुए वचन संसार को मोहित करने के लिए हैं।’

इसके सिवा न तो यह कहना ही उचित है कि यह नित्यकर्म – अनुष्ठान रूप विषय मायायुक्त वचनों से गुप्त रखने योग्य है और न यही कहना ठीक है कि (यह विषय बड़ा गहन है इसलिए) बारंबार दूसरे-दूसरे शब्दों के द्वारा कहने से सुबोध होगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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क्रम संख्या अध्याय पृष्ठ संख्या
1. प्रथम अध्याय 16
2. द्वितीय अध्याय 26
3. तृतीय अध्याय 114
4. चतुर्थ अध्याय 162
5. पंचम अध्याय 216
6. षष्ठम अध्याय 254
7. सप्तम अध्याय 297
8. अष्टम अध्याय 318
9. नवम अध्याय 339
10. दशम अध्याय 364
11. एकादश अध्याय 387
12. द्वादश अध्याय 420
13. त्रयोदश अध्याय 437
14. चतुर्दश अध्याय 516
15. पंचदश अध्याय 536
16. षोडश अध्याय 557
17. सप्तदश अध्याय 574
18. अष्टादश अध्याय 591
अंतिम पृष्ठ 699

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