श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य पृ. 173

श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य

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चतुर्थो अध्याय

इति एवं गुणकर्मविभागशः चातुर्वर्ण्यं यमा सृष्टम् इत्यर्थः।

तत् च इदं चातुर्वर्ण्यं न अन्येषु लोकेषु अतो मानुषे लोके इति विशेषणम्।

इस प्रकार गुण और कर्मों के विभाग से चारों वर्ण मेरे द्वारा उत्पन्न किए गये हैं, यह अभिप्राय है।

ऐसी यह चार वर्णों की अलग-अलग व्यवस्था दूसरे लोकों में नहीं है, इसलिए (पूर्वश्लोक में) ‘मानुषे लोके’ यह विशेषण लगाया गया है।

तथा जिसमें रजोगुण गौण और तमोगुण प्रधान है, उस शूद्र का केवल सेवा ही कर्म है।

हन्त तर्हि चातुर्वर्ण्यसर्गादेः कर्मणः कर्तृत्वात् तत्फलेन युज्यसे अतो न त्वं नित्यमुक्तो नित्येश्वर इति उच्यते-

यद्यपि मायासंव्यवहारेण तस्य कर्मणाः कर्तारम् आपि सन्तं मां परमार्थतो विद्धि अकर्तारम् अत एव अव्ययम् असंसारिणं च मां विद्धि।।13।।

येषां तु कर्मणां कर्तारं मां मन्यसे, परमार्थतः तेषाम् अकर्ता एव अहं यतः-

यदि चातुर्वर्ण्य की रचना आदि कर्म के आप कर्ता हैं, तब तो उसके फल से भी आपका संबंध होता ही होगा, इसलिए आप नित्यमुक्त और नित्य-ईश्वर भी नहीं हो सकते? इस पर कहा जाता है-

यद्यपि मायिक व्यवहार से मैं उस कर्म का कर्ता हूँ, तो भी वास्तव में मुझे तू अकर्ता ही जान; तथा इसीलिए मुझे अव्यय और असंसारी ही समझ।।13।।

न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा ।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ॥14॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
क्रम संख्या अध्याय पृष्ठ संख्या
1. प्रथम अध्याय 16
2. द्वितीय अध्याय 26
3. तृतीय अध्याय 114
4. चतुर्थ अध्याय 162
5. पंचम अध्याय 216
6. षष्ठम अध्याय 254
7. सप्तम अध्याय 297
8. अष्टम अध्याय 318
9. नवम अध्याय 339
10. दशम अध्याय 364
11. एकादश अध्याय 387
12. द्वादश अध्याय 420
13. त्रयोदश अध्याय 437
14. चतुर्दश अध्याय 516
15. पंचदश अध्याय 536
16. षोडश अध्याय 557
17. सप्तदश अध्याय 574
18. अष्टादश अध्याय 591
अंतिम पृष्ठ 699

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