श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
तृतीय अध्यायसहयज्ञा यज्ञसहिताः प्रजा त्रयो वर्णाः ताः सृष्टा उत्पाद्य, पुरा सर्गादौ उवाच उक्तवान् प्रजापतिः प्रजानां स्रष्टा, नेन यज्ञेन प्रसविष्यध्वं प्रसवो वृद्धिः उत्पत्तिः तां कुरुध्वम्। एष यज्ञो वो युष्माकम् अस्तु भवतु इष्टकु इष्टान् अभिप्रेतान् कामान् फलविशेषान् दोग्धि इति इष्टकामधुक्।।10।। कथम् - सृष्टि के आदिकाल में यज्ञसहित प्रजा को अर्थात् (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य- इन) तीनों वर्णों को रचकर जगत् के रचयिता प्रजापति ने कहा कि इस यज्ञ से तुमलोग प्रसव- उत्पत्ति, यानी वृद्धिलाभ करो। यह यज्ञच तुमलोगों को इष्ट कामनाओं काक देने वाला अर्थात् इच्छित फलरूप नाना भोगों को देने वाला हो।।10।। कैसे- देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः। देवान् इन्द्रादीन् भावयत वर्धयत अनेन यज्ञेन ते देवा भावयन्तु आप्याययन्तु वृष्ट्यादिना वो युष्मान् एवं परस्परम् अन्योन्यं भावयन्तः श्रेयः परं मोक्षलक्षणं ज्ञानप्राप्तिक्रमेण अवाप्स्यथ स्वर्गं वा परं श्रेयः अवाप्स्यथ।।11।। तुम लोग इस यज्ञ द्वारा इन्द्रादि देवों को बढ़ाओं अर्थात् उनकी उन्नति करो। वे देव वृष्टि आदि द्वारा तुमलोगों को बढ़ावें अर्थात् उन्नत करें। इस प्रकार एक दूसरे को उन्नत करते हुए (तुमलोग) ज्ञान प्राप्ति द्वारा मोक्षरूप परमश्रेय को प्राप्त करोगे। अथवा स्वर्गरूप परमश्रेय को ही प्राप्त करोगे।।11।।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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