श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य पृ. 135

श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य

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तृतीय अध्याय

यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर।।9।।

‘यज्ञो वै विष्णुः’ [1] इति श्रुतेर्यज्ञ ईश्वरः तदर्थं यत् क्रियते तद् यज्ञार्थ कर्म तस्मात् कर्मणः अन्यत्र अन्येन कर्मणा लोकः अयम् अधिकृतः कर्मकृत् कर्मबन्धनः कर्म बन्धनं यस्य सः अयं कर्मबन्धनों लोको न तु यज्ञार्थाद् अतः तदर्थ यज्ञार्थ कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः कर्मफलसंवर्जिताः सन् समाचार निर्वर्तय।।9।।

इतः च अधिकृतेन कर्म कर्तव्यम्-

‘यज्ञ ही विष्णु है’ इस श्रुतिप्रमाण से यज्ञ ईश्वर है और उसके लिए जो कर्म किया जाय वह ‘यज्ञार्थ कर्म’ है, उस (ईश्वरार्थ) कर्म को छोड़कर दूसरे कर्मों से, कर्म करने वाला अधिकारी मनुष्य समुदाय, कर्मबन्धनयुक्त हो जाता है, पर ईश्वरार्थ किये जाने वाले कर्म से नहीं। इसलिए हे कौन्तेय! तू कर्मफल और आसक्ति से रहित होकर ईश्वरार्थ कर्मों का भली प्रकार आचरण कर।।9।। इस आगे बतलाये जाने वाले कारण से भी अधिकारी को कर्म करना चाहिए-

सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्।।10।।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (तै. सं. 1।7।4)

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श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
क्रम संख्या अध्याय पृष्ठ संख्या
1. प्रथम अध्याय 16
2. द्वितीय अध्याय 26
3. तृतीय अध्याय 114
4. चतुर्थ अध्याय 162
5. पंचम अध्याय 216
6. षष्ठम अध्याय 254
7. सप्तम अध्याय 297
8. अष्टम अध्याय 318
9. नवम अध्याय 339
10. दशम अध्याय 364
11. एकादश अध्याय 387
12. द्वादश अध्याय 420
13. त्रयोदश अध्याय 437
14. चतुर्दश अध्याय 516
15. पंचदश अध्याय 536
16. षोडश अध्याय 557
17. सप्तदश अध्याय 574
18. अष्टादश अध्याय 591
अंतिम पृष्ठ 699

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