श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
तृतीय अध्याययहाँ (गीता में) भी ‘सब कर्मों को मन से छोड़कर’ इत्यादि वचन कहे हैं। मोक्ष अकार्य है अर्थात् किसी क्रिया से प्राप्त होने वाला नहीं है, इससे भी मुमुक्षु के लिए कर्म व्यर्थ है। पू.- यदि ऐसा कहें कि प्रत्यवाय* दूर करने के लिए नित्यकर्मों का अनुष्ठान करना आवश्यक है, तो? उ.- यह कहना ठीक नहीं; क्योंकि प्रत्यवाय की प्राप्ति संन्यासी के लिए नहीं, असंन्यासी के लिए है। जो संन्यासी नहीं है, ऐसे कर्म कनरे वाले गृहस्थों को और ब्रह्मचारियों को भी जिस प्रकार विहित कर्म न करने से प्रत्यवाय होता है, वैसे अग्निहोत्रादि कर्म न करने से संन्यासी के लिए प्रत्यवाय प्राप्ति की कल्पना नही की जा सकती। न तावद् नित्यानां कर्मणाम् अभावाद् एव भावरूपस्य प्रत्यवायस्य उत्पत्तिः कल्पयितुं शक्या ‘कथमसतः सज्जायेत’ [1] इति असतः सज्जन्मासम्भवश्रुतेः। यदि विहिताकरणाद् असम्भाव्यम् अपि प्रत्यवायं ब्रुयाद् वेदः तदा अनर्थकरो वेदः अप्रमाणम् इति उक्तं स्यात्। विहितस्य करणाकरणयोः दुःखमात्र फलत्वात्। तथा च कारकं शास्त्रं न ज्ञापकम् इति अनुपपन्नार्थ कल्पितं स्यात्। न च एतद् इष्टम्। तस्माद् न सन्न्यासिनां कर्माणि अतो ज्ञानकर्मणोः समुच्चयानुपपत्तिः। ‘ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिः’ इति।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (छा. उ. 6।2।2)
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