मेरो मन लागो हरिसूं -मीराँबाई

मीराँबाई की पदावली

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अपना मार्ग


मेरो मन लागो हरिसूँ, अब न रहूँगी अटकी ।
गुरु मिलिया रैदास जी, दीन्‍हीं ग्‍यान की गुटकी ।
चोट लगी निज नाम हरीकी, म्‍हाँरे हिवड़े खटकी ।
मोती माणिक परत न पहिरूँ मैं कबकी नटकी ।
गेणो तो म्‍हाँरे माला दोवड़ी, और चंदन की कुटकी ।
राज कुल की लाज गमाई, साधाँ के सँग मैं भटकी ।
नित उठ हरिजी के मंदिर जास्‍याँ, नाच्‍याँ दे दे चुटकी ।
भाग खुल्‍यो म्‍हाँरो साध सँगत सूँ, साँवरिया की बटकी ।
जेठ बहू की काण न मानूँ, घूँघट पड़ गई पटकी ।
परम गुराँ के सरण में रहस्‍याँ परणाम कराँ लुटकी ।
मीराँ के प्रभु गिरधर नागर, जनम मरण सूँ छुटकी ।।24।।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अटकी = रुकी हुई, इधर उधर फँसी हुई। रैदाँस जी = प्रसिद्ध संत रैदास वा उनके पंथ के कोई रैदासी महात्मा। गुटकी = घूँट। हिवड़े = हृदय में। खटकी = टीसने लगीं। परत = इकहरे, दुहरे गहने, अथवा कभी ( ? )। नटकी = अस्वीकार कर दिया है। कब की = कभी से। गेणो = गहना। दोवड़ी = गले में पहनने का एक गहना। कुटकी = छोटा टुकड़ा। चंदन की कुटकी = कंठी। साधाँ = साधुओं। ( देखो - ‘चंदन की कुटकी भली, गाड़ो भलो न काठ’ - एक मारवाड़ी दोहा और ‘चंदन की कुटकी भली, नां, बंबूर की अंबरांउ’ - कबीर )। बटकी = बाट वा मार्ग की। काण = लाज, मर्यादा। घूँघर..पटकी = घूँघट का त्याग कर दिया। परम गुराँ = परम गुरु परमात्मा के। लुटकी = लटक कर , झुक कर वा लोट कर।

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