मीराँबाई की पदावली पृ. 14

मीराँबाई की पदावली

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आधार स्वरूप सिद्धांत

मीराँबाई के जीवन पर एक सरसरी दृष्टि डालने पर हमें विदित हो जायेगा कि उसकी घटनाओं के भीतर दो प्रकार की स्पष्ट धारायें प्राय: निरन्तर प्रवाहित होती रहीं जिनमें एक का रूप विषादमय और दूसरी का अनुरागमय था और इन दोनों ने उनके मानस पटल पर दो भिन्न-भिन्न, किन्तु वास्तव में एक दूसरे से मिली हुई निश्चित रेखाओं की सृष्टि की। हम ऊपर देख चुके हैं कि बहुत थोड़ी अवस्था में ही मीराँबाई को अपनी माता का वियोग सहना पड़ा था और तब से उनके पितामह, पति, पिता, श्ववसुर एवं चचा का भी एक दूसरे के अनन्तर देहान्त होता गया और अपना पारिवारिक जीवन व्यतीत करते समय इस प्रकार उनके हदृय पर एक न एक ठेस बराबर लगती ही गयी। इसके सिवाय, यदि एक ओर बाहर से इसी बीच में मेवाड़ पर बाबर एवं बहादुरशाह जैसे प्रबल शत्रुओं के एक से अधिक आक्रमण हुए और कुछ काल के लिए चित्तौड़ का दुर्ग भी दूसरे के हाथ लग गया तो, दूसरी ओर मेवाड़ के भीतर भी गृह-कलह की कमी नहीं रही। इसी प्रकार मेढ़ता और जोधपुर के बीच भी प्रायः इसी समय मनमुटाव के कारण युद्ध हुए और राव जयमल को अपने राज्य से हाथ धोना पड़ा। ये सब बातें मीराँबाई के हृदय में विरक्ति के भाव भरने के लिये पर्याप्त थीं। हम इसी प्रकार यह भी जानते हैं कि श्री गिरधरलाल की मूर्ति ने मीराँबाई को उनकी बाल्यावस्था में ही किस प्रकार प्रभावित कर दिया था और किस प्रकार उसके मूल स्वरूप श्रीकृष्णचन्द्र के प्रति अधिकाधिक आकृष्ट होने में, उन्हें भिन्न-भिन्न घटनाओं ने सहायता प्रदान की थी अपने जीवनकाल के आरम्भ से लेकर उसके अवसान तक सदा वे उनमें आसक्त रहीं और अन्त में जनश्रुतियों के अनुसार, श्रीरणछोड़जी की मूर्ति में वे विलीन तक हो गईं।

अपने इष्टदेव के प्रति उनका अनुराग प्रतिकूल घटनाओं के होते हुए भी सदा दृढ़ बना रहा। मीराबाई के सिद्धान्त, इसी कारण, जगत् के प्रति विरक्तिमय वा श्रीकृष्ण के प्रति अनुरक्तिमय दीख पड़ते हैं और इन दोनों पगकार की भावनाओं के प्रभाव उनकी रचनाओं पर हमें सर्वत्र लक्षित होते हैं। उनके विचारानुसार सारा दृश्यमान संसार उठ जाने वाला वा अनित्य है और जिस शरीर को पाकर हम अभिमान प्रदर्शन करते हैं वह भी अन्त को ‘माटी’ में ही मिल जाने वाला है। मनुष्य के सभी दैनिक व्यवहार ‘चहर की बाजी’ अर्थात् चिडि़यों के उस खेल के समान हैं जो सन्ध्याकाल के आते ही, उनके बसेरे पर चले जाने के कारण, बन्द हो जाया करता है। इस कारण उनका कहना है कि, इस आवागमन से मुक्ति पाने के लिये, केवल तीर्थ-व्रत करना, काशी ‘करवत’ लेना अथवा भगवा पहन कर, अपना घर बार छोड़ संन्यासी हो जाना मात्र बेकार है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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