मीराँबाई की पदावली पृ. 15

मीराँबाई की पदावली

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आधार स्वरूप सिद्धांत

यहाँ तो योगियों को भी, अपनी साधना के निष्फल हो जाने पर, ‘उलट’ अर्थात् लौट कर पुनर्जन्म धारण करना पड़ता है [1]। वे संसार की इस दुर्दशा का अनुभव कर अत्यन्त दुःखित है- वे रो तक पड़ती हैं[2] और चाहती हें कि, उन्हीं की भाँति, सभी इस कटु सत्य से परिचित होकर, अपने अपने बचाव के लिये प्रयत्न करने लग जायँ। मीराँबाई के विचारानुसार सबको चाहिये कि, अपनी निर्बलता एवम् विवशता पर ध्यान देते हुए, अपने को भगवान् के चरणों में समर्पित कर दें और सदा भक्ति पूर्वक उनका भजन करते रहें। उक्तभजन के न होने से ही मनुष्य-जीवन में फीकापन आ जाया करता है[3] और वह भारतस्वरूप बन जाता है। भगवान् ही एकमात्र नित्यवस्तु हैं और पुनर्जन्म वा कर्मबन्धन को, प्रसन्न होकर, वे ही काट सकते हैं; उनके अतिरिक्त अपने लिये आश्रय या आधार, मीराँ के विचार से, तीनों लोकों में कोई दूसरा नहीं हो सकता[4] मीराँबाई ने उक्त ‘नियत वस्तु’ रूपी भगवान् को ‘हरि अविनासी’ की संज्ञा दी है और उसे अपने हृदय में निवास करने वाला भी बतलाया है।

वे कहती हैं कि सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी, पवन, पानी वा आकाश तक के नष्ट हो जाने पर भी सदा अटल रहने वाला है[5], इस कारण, स्थायी प्रेम उसी के साथ हो सकता है और वही सच्चा ‘बावला’ वा अपना पतिदेव भी कहलाने योग्य है[6]। वह सहज ही प्राप्य है[7], किन्तु, उससे एक बार भी मिलन हो जाने पर, फिर उसके साथ वियोग की भावना तक असह्य हो जाती है।[8] मीराँबाई उसी अविनाशी की ‘पोल’ या द्वार पर खड़ी होकर पुकारा करती हैं।[9] तो भी, उनके अनुसार, वा राम ‘अगम’ एवं ‘अतीत’ हैं। वह ‘आदि अनादि साहब’ है जिसकी ‘सेज गगन मण्डल’ पर बिछी रहा करती है[10]अतएव उन्होंने उसकी प्राप्ति के साधन का नाम ‘ग्यानगुह गाँसी’[11] ‘ग्यान की गुटकी’[12] वा ‘ग्यान’ की ‘गली’ से होकर गुजरना दिया है।[13] उक्त ज्ञान को उन्हें उनके सद्गुरु ने सुझाया था।[14] उन्होंने शब्द वा भेद लखा दिया[15] जिससे उनके ‘भरम’ की ‘किवारी’ खुल गयी[16] और ‘जनम-जनम का सोया मनुआ’ यकायक जग उठा[17] उसके ‘रूम रूम’ या प्रत्येक अंग में चेतनता आ गयी[18] और उसने ‘अमर रस’ का ‘पियाला’ भी पी लिया[19] जिससे उसे आवागमन से सदा के लिए छुटकारा मिल गया।[20]मीराँबाई, इसी कारण, अपने साहब को ‘त्रिकुटी महल’ में बने हुए झरोखे से झाँकी लगाकर देखने, ‘सुन्न महल’ में सुरत जमाने वा ‘सुख की सेज’ बिछाने के लिए[21] आतुर जान पड़ती हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पद 194
  2. पद 15
  3. पद 163
  4. पद 4
  5. पद 20
  6. पद 25
  7. पद 39
  8. पद 48
  9. पद 201
  10. पद 72
  11. पद 22
  12. पद 24
  13. पद 32
  14. पद 120
  15. पद 150
  16. पद 158
  17. पद 26
  18. पद 156
  19. पद 44
  20. पद 24
  21. पद 12

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