नैणा लोभी रे बहुरि सके नहिं आइ -मीराँबाई

मीराँबाई की पदावली

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प्रेमासक्ति

राग नीलांबरी


नैणा लोभी रे बहुरि सके नहिं आइ ।। टेक ।।
रूँम रूँम नखसिख सब निरखत, ललकि [1] रहे ललचाइ ।
मैं ठाढ़ी ग्रिह आपणेरी, मोहन निकसे आई[2]
बदन चंद परकासत हेली, मंद मंद मुसकाइ ।
लोक कुटंबी बरजि बरजहीं, बतियाँ कहत बनाइ ।
चंचल[3] निपट अटक नहिं मानत, परहथ गये बिकाइ ।
भली कहौ कोइ बुरी कहौ मैं, सब लई सीसि चढ़ाइ ।
मीराँ[4] कहे प्रभु गिरधर के बिनि, पल भरि रहौ न जाइ ।।10।।[5]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ललच
  2. सारँग ओट तजे कुल आँकुस वदन दिये मुसकाय ।
  3. चपल
  4. मीरां प्रभु गिरधरलाल बिन
  5. नैणा = नेत्र, नयन। बहुरि = लौटकर। रूँम रूँम = रोम रोम। ललकि रहे = पाने की गहरी इच्छा वा अीलाषा करने लगे। ( देखो - ‘ललकत लखि ज्यों कँमाल पातरी सुनाज की’ - तुलसीदास )। ललचाइ = मोहित व अधीर होकर। ठाढ़ी = खड़ी रही। ग्रिह = घर के द्वार पर। आपणे = अपने। परकासत = प्रकाश फैलाते हुए। हेली = सखी। वरजि वरजहि = बार बार बरजते हैं। अटक = रोक। परहथ = पराये हाथों। ( देखो - ‘बंसी बजावत आनि कढ़ो सो गली में अली कछू टोना सों डारै। हेरि चितै तिरछी करि दृष्टि चलो गयो मोहन ‘मूठि सी मारै’ - रसखान; तथा ‘नंद को नवेलो अलबेली छैल रंग भर्यो, काल्हि मेरे द्वार ह्नैके गावत इतै गयौ।...मृदु मुसुक्याय मुरि, मो तन चितै गयौ।.... नैकुही मैं मेरो कछु मोपै न रहन पायो, औचकही आइ भटू लूट सी बितै गयौ’ - घनानन्द )। सब... चडाइ = सभी कुछ अंगीकार कर लिया वा मान लिया। ( देखो - ‘अब गाँव रे नाँव रे कोई धरौ, हम साँवरे रंग रँगी सो रँगी’ - ठाकुर )

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