द्रौपदी सहित पांडवों का महाप्रस्थान

महाभारत महाप्रस्थानिक पर्व के अंतर्गत पहले अध्याय में वैशम्पायन जी ने पांडवों द्वारा वृष्णिवंशियों का श्राद्ध करके प्रजाजनों की अनुमति लेने का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-

द्रौपदी सहित पांडवों का महाप्रस्थान

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! इसके बाद कुरुकुलरत्न धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर ने अपने अंगों से आभूषण उतारकर वल्‍कलवस्त्र धारण कर लिया। नरेश्‍वर! फिर भीमसेन, अर्जुन, नकुल, सहदेव तथा यशस्विनी द्रौपदी देवी- इन सबने भी उसी प्रकार वल्‍कल धारण किये। भरतश्रेष्ठ! इसके बाद ब्राह्मणों से विधिपूर्वक उत्सर्गकालिक इष्टि करवाकर उन सभी नरश्रेष्ठ पाण्डवों ने अग्नियों का जल में विसर्जन कर दिया और स्वयं वे महायात्रा के लिये प्रस्थित हुए।[1] पहले जूए में परास्त होकर पाण्डव लोग जिस प्रकार वन में गये थे उसी प्रकार उस दिन द्रौपदी सहित उन नरोत्तम पाण्डवों को इस प्रकार जाते देख नगर की सभी स्त्रियाँ रोने लगीं। परन्तु उन सभी भाइयों को इस यात्रा से महान हर्ष हुआ। युधिष्ठिर का अभिप्राय जान और वृष्णिवंशियों का संहार देखकर पाँचों भाई पाण्डव, द्रौपदी और एक कुत्ता- ये सब साथ-साथ चले। उन छहों को साथ लेकर सातवें राजा युधिष्ठिर जब हस्तिनापुर से बाहर निकले तब नगरनिवासी प्रजा और अन्त:पुर की स्त्रियाँ उन्हें बहुत दूर तक पहुँचाने गयीं; किंतु कोई भी मनुष्य राजा युधिष्ठिर से यह नहीं कह सका कि आप लौट चलिये। धीरे-धीरे समस्त पुरवासी और कृपाचार्य आदि युयुत्सु को घेरकर उनके साथ ही लौट आये। जनमेजय! नागराज की कन्या उलूपी उसी समय गंगा जी में समा गयी। चित्रांगदा मणिपुर नगर में चली गयी। तथा शेष माताएँ परीक्षित को घेरे हुए पीछे लौट आयीं।

कुरुनन्दन! तदनन्तर महात्मा पाण्डव और यशस्विनी द्रौपदी देवी सब-के-सब उपवास का व्रत लेकर पूर्व दिशा की ओर मुँह करके चल दिये। वे सब-के-सब योगयुक्‍त महात्मा तथा त्यागधर्म का पालन करने वाले थे। उन्होंने अनेक देशों, नदियों और समुद्रों की यात्रा की। आगे-आगे युधिष्ठिर चलते थे। उनके पीछे भीमसेन थे। भीमसेन के भी पीछे अर्जुन थे और उनके भी पीछे क्रमश: नकुल और सहदेव चल रहे थे। भरतश्रेष्ठ! इन सबके पीछे सुन्दर शरीर वाली, श्‍यामवर्णा, कमलदललोचना, युवतियों में श्रेष्ठ द्रौपदी चल रही थी। वन को प्रस्थित हुए पाण्डवों के पीछे एक कुत्ता भी चला जा रहा था। क्रमश: चलते हुए वे वीर पाण्डव लालसागर के तट पर जा पहुँचे। महाराज! अर्जुन ने दिव्यरत्न के लोभ से अभी तक अपने दिव्य गाण्डीव धनुष तथा दोनों अक्षय तूणीरों का परित्याग नहीं किया था। वहाँ पहुँचकर उन्होंने पर्वत की भाँति मार्ग रोककर सामने खड़े हुए पुरुषरूपधारी साक्षात अग्निदेव को देखा। तब सात प्रकार की ज्‍वालारूप जिह्वाओं से सुशोभित होने वाले उन अग्निदेव ने पाण्डवों से इस प्रकार कहा- ‘वीर पाण्डुकुमारों! मुझे अग्नि समझो। महाबाहु युधिष्ठिर! शत्रुसंतापी भीमसेन! अर्जुन! और वीर अश्विनीकुमारों! तुम सब लोग मेरी इस बात पर ध्‍यान दो। कुरुश्रेष्ठ वीरों! मैं अग्नि हूँ। मैंने ही अर्जुन तथा नारायणस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण के प्रभाव से खाण्डव-वन को जलाया था।

तुम्‍हारे भाई अर्जुन को चाहिये कि ये इस उत्तम आयुध गाण्डीव धनुष को त्यागकर वन में जायँ। अब इन्हें इसकी कोई आवश्‍यकता नहीं है। पहले जो चक्ररत्न महात्मा श्रीकृष्ण के हाथ में था, वह चला गया। वह पुन: समय आने पर उनके हाथ में जायेगा। यह गाण्डीव धनुष सब प्रकार के धनुषों में श्रेष्ठ है। इसे पहले मैं अर्जुन के लिये ही वरुण से माँगकर ले आया था। अब पुन: इसे वरुण को वापस कर देना चाहिये'। यह सुनकर उन सब भाइयों ने अर्जुन को वह धनुष त्याग देने के लिये कहा। तब अर्जुन ने वह धनुष और दोनों अक्षय तरकस पानी में फेंक दिये। भरतश्रेष्ठ! इसके बाद अग्निदेव वहीं अन्तर्धान हो गये और पाण्डववीर वहाँ से दक्षिणाभिमुख होकर चल दिये। भरतश्रेष्ठ! तदनन्तर वे लवणसमुद्र के उत्तर तट पर होते हुए दक्षिण-पश्चिम दिशा की ओर अग्रसर होने लगे। इसके बाद वे केवल पश्चिम दिशा की ओर मुड़ गये। आगे जाकर उन्होंने समुद्र में डूबी हुई द्वारकापुरी को देखा। फिर योगधर्म में स्थित हुए भरतभूषण पाण्डवों ने वहाँ से लौटकर पृथ्‍वी की परिक्रमा पूरी करने की इच्‍छा से उत्तर दिशा की ओर यात्रा की।[2]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत महाप्रस्‍थानिक पर्व अध्याय 1 श्लोक 1-21
  2. महाभारत महाप्रस्‍थानिक पर्व अध्याय 1 श्लोक 22-46

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