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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
द्वादश: सर्ग:
सुप्रीत-पीताम्बर:
चतुर्विंश: सन्दर्भ:
24. गीतम्
त्वामप्राप्य मयि स्वयम्बरपरां क्षीरोद-तीरोदरे अनुवाद- हे सुन्दरि! मूढ़ मृड़ानीपति रुद्र क्षीर-सागर के तट पर जब तुम्हें प्राप्त नहीं कर सके, तब तुमने स्वयं मुझे वरण कर लिया। इस प्रकार पूर्ण कथा को मन में स्मरण कर महापद्मारूपा श्रीराधा के स्तन कोरक के ऊपर जिन्होंने नेत्र भर-भरकर दर्शन प्राप्त किये, वे श्रीहरि आप सबकी रक्षा करें।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- [एवं चिन्तयन् अत्युच्छलितोत्कण्ठया तदवलोकनाय तस्य वैचित्त्यापत्ते: पुन: श्रीनारायण-चरित-वर्णन-कौतुकमातनोदिति स्मरन्र पुन: अशिषयति]- अयि सुन्दरि (त्रिलोकसौन्दर्यसारभूते) क्षीरोदतीरोदरे (क्षीरोदस्य क्षीरसागरस्य तीरोदरे तटमध्ये) मयि स्वयंवरपरां (मदेकचित्तामित्यर्थ:) त्वाम अप्राप्य मूढ़: (तव सौन्दर्यविमुग्ध:) मृड़ानीपति: (गिरिजानाथ:) कालकूटं (विषं) अपिवत्र (वृथैव मे जीवितमिति मन्यमान: तत्त्यागार्थमिति भाव:] [इति अहं] शंके (सम्भावयामि); [एतेन गिरिजाया अपि पद्माया: सौन्दर्याधिक्यं सूचितम], इत्थं (एवं) पूर्वकथाभि: (पुराणप्रसिद्धाभिस्तदश्रुतपूर्वाभि:) अन्यमनस: (विस्मितचित्ताया:) पद्माया: (लक्ष्म्या:) वक्षोऽञ्चलं (वक्ष:स्थमुत्तरीयवसनं) विक्षिप्य (अपसार्य) स्तनकोरकोपरि (कुचकुट्रमलयो: उपरि) मिलन्नेत्र: (संक्रान्तदृष्टि:) हरि: व: (प्रेमरसज्ञान् भक्तान् युष्मान्) पातु ॥
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